Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪৩৬ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১৩২
ভাবার্থ: — সূর্যোদযনা কালে জে মনুষ্যোনে, ধন, ধান্য আদি পদার্থো জোবামাং আব্যা
হতা তে সূর্যাস্ত কালে জোবামাং আবতা নথী. এবুং তেনুং অধ্রুবপণুং জাণীনে তে কারণে তুং সাগার
-অণগার ধর্মনুং পালন কর, ধন অনে যৌবনমাং তৃষ্ণা শা মাটে করে ছে?
প্রশ্নন : — গৃহস্থীএ ধননী তৃষ্ণা ন করবী, তো শুং করবুং?
উত্তর : — ভেদাভেদ রত্নত্রযনা আরাধকোনে সর্ব তাত্পর্যথী (পূরেপূরা অনুরাগথী)
আহারাদি চার প্রকারনুং দান দেবুং. অথবা তো সর্বসংগনো পরিত্যাগ করীনে নির্বিকল্প পরম
সমাধিমাং স্থির রহেবুং. যৌবনমাং পণ তৃষ্ণা ন করবী. যৌবন-অবস্থামাং যৌবননা উদ্রেকজনিত
বিষযনো রাগ ছোডী দঈনে অনে বিষযথী প্রতিপক্ষভূত বীতরাগ চিদানংদ জেনো এক স্বভাব ছে
जे दिट्ठा इत्यादि । जे दिट्ठा ये केचन द्रष्टाः । क्व । सूरुग्गमणि सूर्योदये ते अत्थवणि
ण दिट्ठ ते पुरुषा गृहधनधान्यादिपदार्था वा अस्तगमने न द्रष्टाः, एवमध्रुवत्वं ज्ञात्वा । तें
कारणिं वढ धम्मु करि तेन कारणेन वत्स पुत्र सागारानगारधर्मं कुरु । धणि जोव्वणि कउ
तिट्ठ धने यौवने वा का तृष्णा न कापीति । तद्यथा । गृहस्थेन धने तृष्णा न कर्तव्या तर्हि
किं कर्तव्यम् । भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानां सर्वतात्पर्येणाहारादिचतुर्विधं दानं दातव्यम् । नो चेत्
सर्वसंगपरित्यागं कृत्वा निर्विकल्पपरमसमाधौ स्थातव्यम् । यौवनेऽपि तृष्णा न कर्तव्या,
यौवनावस्थायां यौवनोद्रेकजनितविषयरागं त्यक्त्वा विषयप्रतिपक्षभूते वीतरागचिदानन्दैकस्वभावे
[धने यौवने ] धन और यौवन अवस्थामें [का तृष्णा ] क्या तृष्णा कर रहा है ।
भावार्थ : — धन, धान्य, मनुष्य, पशु, आदिक पदार्थ जो सबेरेके समय देखे थे, वे
शामके समयमें नहीं दिखते, नष्ट हो जाते हैं, ऐसा जगत्का ठाठ विनाशिक जानकर इन
पदार्थोंकी तृष्णा छोड़ और श्रावकका तथा यतीका धर्म स्वीकार कर, धन यौवनमें क्या तृष्णा
कर रहा है । ये तो जलके बूलबूलेके समान क्षणभंगुर हैं । यहाँ कोई प्रश्न करे, कि गृहस्थी
धनकी तृष्णा न करे तो क्या करे ? उसका उत्तर — निश्चय-व्यवहाररत्नत्रयके आराधक जो
यति उनकी सब तरह गृहस्थको सेवा करनी चाहिये, चार प्रकारका दान देना, धर्मकी इच्छा
रखनी, धनकी इच्छा नहीं करनी । जो किसी दिन प्रत्याख्यानकी चौकड़ीके उदयसे श्रावकके
व्रतमें भी है, तो देव पूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, दान, शील, उपवासादि अणुव्रतरूप धर्म
करे, और जो बड़ी शक्ति होवे, तो सब परिग्रह त्यागकर यतीके व्रत धारण करके निर्विकल्प
परमसमाधिमें रहे । यतीको सर्वथा धनका त्याग और गृहस्थको धनका प्रमाण करना योग्य
है । विवेकी गृहस्थ धनकी तृष्णा न करें । धन यौवन असार है, यौवन अवस्थामें विषय तृष्णा
न करें, विषयका राग छोड़कर विषयोंसे पराङ्मुख जो वीतराग निजानंद एक अखंड