Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৩৩ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৩৭
এবা শুদ্ধ আত্মস্বরূপমাং স্থিত থঈনে নিরংতর আত্মভাবনা করবী, এবো ভাবার্থ ছে. ১৩২.
হবে, ধর্ম অনে তপশ্চরণ রহিতনো জন্ম বৃথা ছে, এম কহে ছে : —
ভাবার্থ: — চামডাথী বনেল মনুষ্যশরীররূপী বৃক্ষথী জে গৃহস্থে অথবা তপোধনে
ধর্মসংচয ন কর্যো, তপ ন কর্যুং, (গৃহস্থে) গৃহস্থাবস্থামাং সম্যক্ত্বপূর্বক দান, শীল, পূজা,
উপবাস আদি গৃহস্থধর্মনুং আচরণ ন কর্যুং, দর্শনপ্রতিমা, ব্রতপ্রতিমা আদি অগিযার প্রকারনা
शुद्धात्मस्वरूपे स्थित्वा च निरन्तरं भावना कर्तव्येति भावार्थः ।।१३२।।
अथ धर्मतपश्चरणरहितानां मनुष्यजन्म वृथेति प्रतिपादयति —
२६३) धम्मु ण संचिउ तउ ण किउ रुक्खेँ चम्ममएण ।
खज्जिवि जर-उद्देहियए णरइ पडिव्वउ तेण ।।१३३।।
धर्मो न संचितः तपो न कृतं वृक्षेण चर्ममयेन ।
खादयित्वा जरोद्रेहिकया नरके पतितव्यं तेन ।।१३३।।
धम्मु इत्यादि । धम्मु ण संचिउ धर्मसंचयो न कृतः गृहस्थावस्थायां दानशील-
पूजोपवासादिरूपसम्यक्त्वपूर्वको गृहिधर्मो न कृतः, दर्शनिकव्रतिकाद्येकादशविधश्रावकधर्मरूपो
वा । तउ ण किउ तपश्चरणं न कृतं तपोधनेन तु समस्तबहिर्द्रव्येच्छानिरोधं कृत्वा अनशनादि-
स्वभावरूप शुद्धात्मा उसमें लीन होकर हमेशा भावना करनी चाहिये ।।१३२।।
आगे जो धर्मसे रहित हैं, और तपश्चरण भी नहीं करते हैं, उनका मनुष्य – जन्म वृथा
है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – १३३
अन्वयार्थ : — [येन ] जिसने [चर्ममयेन वृक्षेण ] मनुष्य शरीररूपी चर्ममयी वृक्षको
पाकर उससे [धर्मः न कृतः ] धर्म नहीं किया, [तपो न कृतं ] और तप भी नहीं किया,
उसका शरीर [जरोद्रेहिकया खादयित्वा ] बुढ़ापारूपी दीमकके कीड़ेकर खाया जायगा, फि र
[तेन ] उसको मरणकर [नरके ] नरकमें [पतितव्यं ] पड़ना पड़ेगा ।
भावार्थ : — गृहस्थ अवस्थामें जिसने सम्यक्त्वपूर्वक दान, शील, पूजा, उपवासादिरूप
गृहस्थका धर्म नहीं किया, दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमाके भेदरूप श्रावकका
धर्म नहीं धारण किया, तथा मुनि होकर सब पदार्थोंकी इच्छाका निरोध कर अनशन वगैरः