Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Bengali transliteration). Gatha-134 (Adhikar 2).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪৩৮ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১৩৩
শ্রাবকধর্মনুং আচরণ ন কর্যুং অনে তপোধনে বাহ্য সমস্ত দ্রব্যোনী ইচ্ছানো নিরোধ করীনে
অনশনাদি বার প্রকারনা তপশ্চরণনা বলথী নিজশুদ্ধাত্মানা ধ্যানমাং স্থিত থঈনে নিরংতর
আত্মভাবনা ন করী-এ রীতে জে গৃহস্থে কে তপোধনে ন কর্যুং, তেনুং শরীর জরারূপ ঊধঈথী খবাঈ
জশে, অনে নরকমাং পডবুং পডশে.
অহীং, তাত্পর্য এম ছে কে গৃহস্থে অভেদরত্নত্রযস্বরূপনে উপাদেয করীনে ভেদরত্নত্রযাত্মক
শ্রাবকধর্ম পালবো অনে যতিএ নিশ্চযরত্নত্রযমাং স্থিত থঈনে ব্যাবহারিক রত্নত্রযনা বলথী
বিশিষ্ট তপশ্চরণ করবুং জোঈএ, নহিতর (শ্রাবকনো কে যতিনো ধর্ম ন পাল্যো তো) পরংপরাএ
পামেলো দুর্লভ এবো মনুষ্যজন্ম নিষ্ফল ছে. ১৩৩.
হবে, হে জীব! জিনেশ্বরপদনী পরম ভক্তি কর এবী শ্রী গুরুদেব শিক্ষা আপে ছে :
द्वादशविधतपश्चरणबलेन निजशुद्धात्मध्याने स्थित्वा निरन्तरं भावना न कृता के न कृत्वा रुक्खें
चम्ममएण वृक्षेण मनुष्यशरीरचर्मनिर्वृत्तेन येनैवं न कृतं गृहस्थेन तपोधनेन वा णरइ पडिव्वउ
तेण नरके पतितव्यं तेन किं कृत्वा खज्जिवि भक्षयित्वा कया कर्तृभूतया जरउद्देहियए
जरोद्रेहिकया इदमत्र तात्पर्यम् गृहस्थेनाभेदरत्नत्रयस्वरूपमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयात्मकः
श्रावकधर्मः कर्तव्यः, यतिना तु निश्चयरत्नत्रये स्थित्वा व्यावहारिकरत्नत्रयबलेन विशिष्टतपश्चरणं
कर्तव्यं नो चेत् दुर्लभपरंपरया प्राप्तं मनुष्यजन्म निष्फ लमिति
।।१३३।।
अथ हे जीव जिनेश्वरपदे परमभक्तिं कुर्विति शिक्षां ददाति
२६४) अरि जिय जिण-पइ भत्ति करि सुहि सज्जणु अवहेरि
तिं बप्पेण वि कज्जु णवि जो पाडइ संसारि ।।१३४।।
बारह प्रकारका तप नहीं किया, तपश्चरणके बलसे शुद्धात्माके ध्यानमें ठहरकर निरंतर भावना
नहीं की, मनुष्यके शरीररूप चर्ममयी वृक्षको पाकर यतीका व श्रावकका धर्म नहीं किया,
उनका शरीर वृद्धावस्थारूपी दीमकके कीड़े खावेंगे, फि र वह नरकमें जावेगा
इसलिये
गृहस्थको तो यह योग्य है, कि निश्चयरत्नत्रयकी श्रद्धाकर निजस्वरूप उपादेय जान, व्यवहार
रत्नत्रयरूप श्रावकका धर्म पालना
और यतीको यह योग्य है, कि निश्चयरत्नत्रयमें ठहरकर
व्यवहाररत्नत्रयके बलसे महा तप करना अगर यतीका व श्रावकका धर्म नहीं बना, अणुव्रत
नहीं पाले, तो महा दुर्लभ मनुष्यदेहका पाना निष्फ ल है, उससे कुछ फ ायदा नहीं ।।१३३।।
आगे श्रीगुरु शिष्यको यह शिक्षा देते हैं, कि तू मुनिराजके चरणारविंदकी परमभक्ति
कर,