Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪৪৬ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১৩৯
বহির্মুখ, বিষযাসক্ত জীবে জে পাপো উপার্জ্যাং ছে তেনা উদযজনিত এবাং নরকাদি দুঃখোনী
পরিপাটী জ – প্রস্তাব জ – আবে ছে, এম জাণীনে হে ভ্রাংত জীব! তুং পোতানা জ খংভা উপর
কুহাডো ন মার (অর্থাত্ বিষযোনুং সেবন ন কর.)
অহীং, আ ব্যাখ্যান জাণীনে বিষযসুখ ছোডীনে অনে বীতরাগপরমাত্ম সুখমাং স্থিত
থঈনে নিরংতর আত্মভাবনা করবী জোঈএ, এবো ভাবার্থ ছে. ১৩৮.
হবে, আত্মভাবনা অর্থে জে বিদ্যমান বিষযোনে ত্যাগে ছে, তেনী প্রশংসা করে ছে : —
पश्चाद्दिनद्वयानन्तरं दुक्खहं परिवाडि आत्मसुखबहिर्मुखेन, विषयासक्ते न जीवेन
यान्युपार्जितानि पापानि तदुदयजनितानां नारकादिदुःखानां पारिपाटी प्रस्तावः एवं ज्ञात्वा
भुल्लउ जीव हे भ्रांत जीव म वाहि तुहुं मा निक्षिप त्वम् । कम् कुहाडि कुठारम् ।
क्व । अप्पण खंधि आत्मीयस्कन्धे । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा विषयसुखं त्यक्त्वा वीतराग-
परमात्मसुखे च स्थित्वा निरन्तरं भावना कर्तव्येति भावार्थः ।।१३८।।
अथात्मभावनार्थं योऽसौ विद्यमानविषयान् त्यजति तस्य प्रशंसां करोति —
२७०) संता विसय जु परिहरइ बलि किज्जउँ हउँ तासु ।
सो दइवेण जि मुंडियउ सीसु खडिल्लउ जासु ।।१३९।।
सतः विषयान् यः परिहरति बलिं करोमि अहं तस्य ।
स दैवेन एव मुण्डितः शीर्षं खल्वाटं यस्य ।।१३९।।
व्याख्यान जानकर विषय – सुखोंको छोड़, वीतराग परमात्म – सुखमें ठहरकर निरन्तर
शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये ।।१३८।।
आगे आत्म – भावनाके लिये जो विद्यमान विषयोंको छोड़ता है, उसकी प्रशंसा करते
हैं —
गाथा – १३९
अन्वयार्थ : — [यः ] जो कोई ज्ञानी [सतः विषयान् ] विद्यमान विषयोंको
[परिहरति ] छोड़ देता है, [तस्य ] उसकी [अहं ] मैं [बलिं ] पूजा [करोमि ] करता हूँ,
क्योंकि [यस्य शीर्षं ] जिसका शिर [खल्वाटं ] गंजा है, [सः ] वह तो [दैवेन एव ] दैवकर
ही [मुंडितः ] मूड़ा हुआ है, वह मुंडित नहीं कहा जा सकता ।