Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৪০ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৪৯
ভাবার্থ: — হে ভব্যো! তমে রাগাদি বিকল্প রহিত পরমাত্মানী ভাবনাথী প্রতিকূল
এবা, দেখেলা, সাংভলেলা অনে ভোগোনী আকাংক্ষাথী মাংডীনে সমস্ত অনুভবেলা অপধ্যান জনিত
বিকল্পজালরূপ অনে পাংচ জ্ঞাননা প্রতিপক্ষভূত পাংচ ইন্দ্রিযোনা মনরূপী নাযকনে
বিশিষ্টভেদভাবনারূপ অংকুশনা বলথী স্বাধীন করো. জেনে স্বাধীন করবাথী শুং থায ছে? জেনে
(মননে) বশ করবাথী অন্য ইন্দ্রিযো বশ থায ছে. দ্রষ্টাংত কহে ছে. ঝাডনুং মূল নষ্ট থতাং,
পাংদডাও নক্কী সুকাঈ জায ছে.
অহীং, ভাবার্থ এম ছে কে নিজশুদ্ধাত্মতত্ত্বনী ভাবনা অর্থে যেনকেন প্রকারেণ (কোঈ
पञ्चानां नायकं वशीकुरुत येन भवन्ति वशे अन्यानि ।
मूले विनष्टे तरुवरस्य अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ।।१४०।।
पंचहं इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । पंचहं पञ्चज्ञानप्रतिपक्षभूतानां
पञ्चेन्द्रियाणां णायकु रागादिविकल्परहितपरमात्मभावनाप्रतिकूलं द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूप-
प्रभृतिसमस्तापध्यानजनितविकल्पजालरूपं मनोनायकं हे भव्याः वसिकरहु विशिष्टभेद-
भावनाङ्कुशबलेन स्वाधीनं कुरुते । येन स्वाधीनेन किं भवति । जेण होंति वसि अण्ण
येन वशीकृतेनान्यानीन्द्रियाणि वशीभवन्ति ।द्रष्टान्तमाह । मूलविणट्ठइ तरु-वरहं मूले विनष्टे
तरुवरस्य अवसइं सुक्कहिं पण्ण अवश्यं नियमेन शुष्यन्ति पर्णानि इति । अयमत्र
भावार्थः । निजशुद्धात्मतत्त्वभावनार्थं येन केनचित्प्रकारेण मनोजयः कर्तव्यः तस्मिन् कृते
गाथा – १४०
अन्वयार्थ : — [पंचानां नायकं ] पाँच इन्द्रियोंके स्वामी मनको [वशीकुरुत ] तुम
वशमें करो [येन ] जिस मनके वश होनेसे [अन्यानि वशे भवंति ] अन्य पाँच इन्द्रियें वशमें
हो जाती हैं । जैसे कि [तरुवरस्य ] वृक्षकी [मूले विनष्टे ] जड़के नाश हो जानेसे [पर्णानि ]
पत्ते [अवश्यं शुष्यंति ] निश्चयसे सूख जाते हैं ।
भावार्थ : — पाँचवाँ ज्ञान जो केवलज्ञान उससे पराङ्मुख स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु,
क्षोत्र, इन पाँच इन्द्रियोंका स्वामी मन है, जो रागादि विकल्प रहित परमात्माकी भावनासे विमुख
और देखे, सुने, भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप आर्त, रौद्र, खोटे ध्यानोंको आदि लेकर अनेक
विकल्पजालमयी मन है । यह चंचलमनरूपी हस्ती उसको भेदविज्ञानकी भावनारूप अंकुशके
बलसे वशमें करो, अपने आधीन करो । जिसके वश करनेसे सब इन्द्रियां वशमें हो सकती
हैं, जैसे जड़के टूट जानेसे वृक्षके पत्ते आप ही सूख जाते हैं । इसलिये निज शुद्धात्मकी
भावनाके लिये जिस तिस तरह मनको जीतना चाहिये । ऐसा ही अन्य जगह भी कहा है, कि