Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪৫৬ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১৪৪
প্রতিপক্ষভূত মোহনা বংধনথী দ্রঢ বাংধতো হোবাথী জে অবিচল ছে এবো অবিচল পাশ রচ্যো
ছে, এমাং সংদেহ করবা যোগ্য নথী.
বিশুদ্ধজ্ঞান, বিশুদ্ধ দর্শন জেনো স্বভাব ছে এবা পরমাত্মপদার্থনী ভাবনাথী
প্রতিপক্ষভূত কষায-ইন্দ্রিযো বডে মন ব্যাকুল থায ছে, মননী শুদ্ধি বিনা গৃহস্থোনে তপোধননী
মাফক শুদ্ধাত্মভাবনা করবানুং বনী শকতুং নথী. বলী, কহ্যুং পণ ছে কে : —
‘‘कषायैरिन्द्रियैर्दुष्टैर्व्याकुलीक्रियते मनः । यतः कर्तुं न शक्येत भावना गृहमेधिभिः ।।’’ (অর্থ: —
দুষ্ট কষায অনে ইন্দ্রিযোথী মন ব্যাকুল বনে ছে, তেথী গৃহস্থো আত্মভাবনা করী শকতা
নথী.) ।।১৪৪.
হবে, ঘরনুং মমত্ব ছোডাব্যা পছী দেহনা মমত্বনো ত্যাগ দর্শাবে ছে (দেহনুং মমত্ব ছোডাবে
ছে.) : —
कृतान्तनाम्ना कर्मणा । कथंभूतः । अविचलु शुद्धात्मतत्त्वभावनाप्रतिपक्षभूतेन मोहबन्धनेना-
बद्धत्वादविचलः णिस्संदेहु संदेहो न कर्तव्य इति । अयमत्र भावार्थः । विशुद्धज्ञानदर्शन-
स्वभावपरमात्मपदार्थभावनाप्रतिपक्षभूतैः कषायेन्द्रियैः व्याकुलक्रियते मनः, मनःशुद्धयभावे
गृहस्थानां तपोधनवत् शुद्धात्मभावना कर्तुं नायातीति । तथा चोक्त म् — ‘‘कषायैरिन्द्रियै-
र्दुष्टैर्व्याकुलीक्रियते मनः । यतः कर्तुं न शक्येत भावना गृहमेधिभिः ।।’’ ।।१४४।।
अथ गृहममत्वत्यागानन्तरं देहममत्वत्यागं दर्शयति —
२७६) देहु वि जित्थु ण अप्पणउ तहिँ अप्पणउ किं अण्णु ।
पर-कारणि मण गुरुव तुहुँ सिव-संगमु अवगण्णु ।।१४५।।
यह घर मोहके बँधनसे अति दृढ़ बँधा हुआ है, इसमें संदेह नहीं है । यहाँ तात्पर्य ऐसा
है, कि शुद्धात्मज्ञान दर्शन शुद्ध भावरूप जो परमात्मपदार्थ उसकी भावनासे विमुख जो
विषय कषाय हैं, उनसे यह मन व्याकुल होता है । इसलिये मनका शुद्धिके बिना
गृहस्थके यतिकी तरह शुद्धात्माका ध्यान नहीं होता । इस कारण घर का त्याग करना
योग्य है, घरके बिना त्यागे मन शुद्ध नहीं होता । ऐसी दूसरी जगह भी कहा है, कि
कषायोंसे और इन दुष्ट इन्द्रियोंसे मन व्याकुल होता है, इसलिये गृहस्थ लोग आत्म –
भावना कर नहीं सकते ।।१४४।।
आगे घरकी ममता छुड़ाकर शरीरका ममत्व छुड़ाते हैं —