Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৬২ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৮১
तिष्ठति इति । यत्र यदायं जीवो रागादिपरभावशून्यनिर्विकल्पसमाधौ तिष्ठति
तदायमुच्छ्वासरूपो वायुर्नासिकाछिद्रद्वयं वर्जयित्वा स्वयमेवानीहितवृत्त्या तालुप्रदेशे यत् केशात्
शेषाष्टमभागप्रमाणं छिद्रं तिष्ठति तेन क्षणमात्रं दशमद्वारेण तदनन्तरं क्षणमात्रं नासिकया
तदनन्तरं रन्ध्रेण कृत्वा निर्गच्छतीति । न च परकल्पितवायुधारणारूपेण श्वासनाशो ग्राह्यः ।
कस्मादिति चेत् वायुधारणा तावदीहापूर्विका, ईहा च मोहकार्यरूपो विकल्पः । स च
অহীং, জ্যারে আ জীব রাগাদি পরভাবথী শূন্য নির্বিকল্প সমাধিমাং রহে ছে ত্যারে
উচ্ছ্বাসরূপ বাযু নাকনা বন্নে ছিদ্রোনে ছোডীনে স্বযমেব অনীহিতবৃত্তিথী তালুপ্রদেশমাং বালনী
অণীনা আঠমা ভাগ জেবডুং জে ছিদ্র ছে তে দশম দ্বারথী ক্ষণবার, ত্যার পছী ক্ষণবার
নাসিকাথী, ত্যার পছী ব্রহ্মরংধ্র দ্বারথী নীকলে ছে পণ পরকল্পিত (পাতংজলি মতবালাথী
কল্পিত) বাযুধারণরূপে শ্বাসনো নাশ ন সমজবো (শ্বাসনুং রুংধন ন সমজবুং). শা মাটে? কারণ
কে বাযুধারণা প্রথম তো ইহাপূর্বক ছে অনে ইহা মোহনা কার্যরূপ বিকল্প ছে. বলী, তে
(অনীহিতবৃত্তিথী নির্বিকল্পসমাধিনা বলথী নীকলতো বাযু) মোহনুং কারণ থতো নথী, তেথী
অহীং পরকল্পিত বাযু ঘটতো নথী. বলী কুংভক, পূরক, রেচক আদি জেনী সংজ্ঞা ছে তে বাযুধারণা
অহীং ক্ষণবার জ থায ছে পণ অভ্যাসনা বশে ঘডী, প্রহর, দিবস আদি সুধী পণ থায ছে
अर्थात् निजस्वभावमें मनकी चंचलता नहीं रहती । जब यह जीव रागादि परभावोंसे शून्य
निर्विकल्पसमाधिमें होता है, तब यह श्वासोच्छ्वासरूप पवन नासिकाके दोनों छिद्रोंको छोड़कर
स्वयमेव अवाँछीक वृत्तिसे तालुवाके बालकी अनीके आठवें भाग प्रमाण अत सूक्ष्म छिद्रमें
(दशवें द्वारमें) होकर निकलती है, नासाके छेदको छोड़कर तालुरंध्रमें (छेदमें) होकर
निकलती है । और पातंजलिमतवाले वायुधारणारूप श्वासोच्छ्वास मानते हैं, वह ठीक नहीं हैं,
क्योंकि वायुधारणा वाँछापूर्वक होती है, और वाँछा है, वह मोहसे उत्पन्न विकल्परूप है,
वाँछाका कारण मोह है । वह संयमीक ो वायुका निरोध वाँछापूर्वक नहीं होता है, स्वाभाविक
ही होता है । जिनशासनमें ऐसा कहा है, कि कुंभक (पवनको खेंचना) पूरक (पवनको
थाँभना) रेचक (पवनको निकालना) ये तीन भेद प्राणायामके हैं, इसीको वायुधारणा कहते
हैं । यह क्षणमात्र होती है, परंतु अभ्यासके वशसे घड़ी, पहर, दिवस आदि तक भी होती है ।
उस वायुधारणाका फ ल ऐसा कहा है, कि देह आरोग्य होती है, देहके सब रोग मिट जाते हैं,
शरीर हलका हो जाता है, परंतु मुक्ति इस वायुधारणासे नहीं होती, क्योंकि वायुधारणा शरीरका
धर्म है, आत्माका स्वभाव नहीं है । शुद्धोपयोगियोंके सहज ही बिना यत्नके मन भी रुक जाता
है, और श्वास भी स्थिर हो जाते हैं । शुभोपयोगियोंके मनके रोकनेके लिये प्राणायामका अभ्यास
है, मनके अचल होनेपर कुछ प्रयोजन नहीं है । जो आत्मस्वरूप है, वह केवल चेतनामयी ज्ञान