कथंभूतम् । इन्द्रियजनितं हे योगिन् तेन कारणेन जीवं जडमपि विजानीहि । तद्यथा । छद्मस्थानां
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले स्वसंवेदनज्ञाने सत्यपीन्द्रियजनितं ज्ञानं नास्ति, केवलज्ञानिनां
पुनः सर्वदैव नास्ति तेन कारणेन जडत्वमिति । अत्र इन्द्रियज्ञानं हेयमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमिति
भावार्थः ।।५३।।
अथ शरीरनामकर्मकारणरहितो जीवो न वर्धते न च हीयते तेन कारणेन
मुक्त श्चरमशरीरप्रमाणो भवतीति निरूपयति —
५४) कारण-विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण ।
चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिँ तेण ।।५४।।
कारणविरहितः शुद्धजीवः वर्धते क्षरति न येन ।
चरमशरीरप्रमाणं जीवं जिनवराः ब्रुवन्ति तेन ।।५४।।
भावार्थः — छद्मस्थ जीवोने वीतराग निर्विकल्प समाधिना काळमां स्वसंवेदनज्ञान होवा
छतां पण इन्द्रियजनित ज्ञान होतुं नथी, वळी केवळज्ञानीओने (इन्द्रियजनित ज्ञान) कोई वखते
होतुं नथी, ते कारणे जीव ‘जड’ छे.
अहीं इन्द्रियज्ञान हेय छे, अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय छे, एवो भावार्थ छे. ५३.
हवे (हानिवृद्धिना कारणरूप) शरीरनामकर्मना कारणथी रहित जीव वधतो नथी अने
घटतो नथी, तेथी मुक्त जीव ‘चरमशरीरप्रमाण छे’ एम कहे छेः —
नाशको प्राप्त होता है, हे योगी, उसी कारणसे जीवको जड़ भी जानो । महामुनियोंके
वीतरागनिर्विकल्प-समाधिके समयमें स्वसंवेदनज्ञान होनेपर भी इन्द्रियजनित ज्ञान नहीं है, और
केवलज्ञानियोंके तो किसी समय भी इन्द्रियज्ञान नहीं है, केवल अतीन्द्रिय ज्ञान ही है, इसलिये
इन्द्रिय-ज्ञानके अभावकी अपेक्षा आत्मा जड़ भी कहा जा सकता है । यहाँपर बाह्य इन्द्रिय-
ज्ञान सब तरह हेय है और अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है, यह सारांश हुआ ।।५३।।
आगे शरीरनामा नामकर्मरूप कारणसे रहित यह जीव न घटता है, और न बढ़ता है,
इस कारण मुक्त -अवस्थामें चरम-शरीरसे कुछ कम पुरुषाकार रहता है, इसलिये शरीरप्रमाण
भी कहा जाता है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – ५४
अन्वयार्थ : — [येन ] जिस हेतु [कारणविरहितः ] हानि-वृद्धिका कारण शरीर
अधिकार-१ः दोहा-५४ ]परमात्मप्रकाशः [ ९१