कारणविरहितः शुद्धजीवो वर्धते क्षरति हीयते न येन कारणेन चरमशरीरप्रमाणं मुक्त जीवं
जिनवरा भणन्ति तेन कारणेनेति । तथाहि — यद्यपि संसारावस्थायां हानिवृद्धिकारणभूतशरीर-
नामकर्मसहितत्वाद्धीयते वर्धते च तथापि मुक्तावस्थायां हानिवृद्धिकारणाभावाद्वर्धते हीयते च
नैव, चरमशरीरप्रमाण एव तिष्ठतीत्यर्थः । कश्चिदाहमुक्तावस्थायां प्रदीपवदावरणाभावे सति
लोकप्रमाणविस्तारेण भाव्यमिति । तत्र परिहारमाह — प्रदीपस्य योऽसौ प्रकाशविस्तारः स
स्वभावज एव न त्वपरजनितः पश्चाद्भाजनादिना साद्यावरणेन प्रच्छादितस्तेन कारणेन
भावार्थः — जो के संसारावस्थामां जीव हानिवृद्धिना कारणरूप शरीरनाम कर्म सहित
होवाथी घटे छे अने वधे छे, तोपण मुक्त-अवस्थामां हानिवृद्धिना कारणनो अभाव होवाथी
वधतो-घटतो नथी अर्थात् चरमशरीरप्रमाण ज रहे छे.
अहीं कोई प्रश्न करे छे के जेवी रीते आवरणनो अभाव थतां दीवाना प्रकाशनो विस्तार
थाय छे, तेवी रीते मुक्त-अवस्थामां आवरणनो अभाव थतां जीवना प्रदेशोनो लोकप्रमाणे विस्तार
थवो जोईए?
तेनो परिहार करवामां आवे छे के दीवाना प्रकाशनो जे विस्तार छे ते स्वभावजन्य छे,
पण परजनित नथी, भाजन आदिना सादि आवरणथी तेनो प्रकाशविस्तार आच्छादित करवामां
आव्यो हतो, ते कारणे तेना आवरणनो अभाव थतां ज प्रकाशविस्तार घटे छे ज (संभवे छे)
पण जीव अनादिकाळथी कर्मथी ढंकायेलो होवाथी तेनो स्वाभाविक विस्तार नथी.
संकोचविस्तार क्या कारणे छे? संकोचविस्तार शरीरनामकर्मजनित छे ते कारणे (जेवी
रीते माटीनुं वासण पाणीथी भीनुं रहे छे त्यां सुधी पाणीना संबंधथी तेमां वध-घट थाय छे,
नामकर्मसे रहित हुआ [शुद्धजीवः ] शुद्धजीव [न वर्धते क्षरति ] न तो बढ़ता है, और न घटता
है, [तेन ] इसी कारण [जिनवराः ] जिनेन्द्रदेव [जीवं ] जीवको [चरमशरीरप्रमाणं ]
चरमशरीरप्रमाण [ब्रुवन्ति ] कहते हैं ।
भावार्थ : — यद्यपि संसार अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण शरीरनामा नामकर्म है,
उसके संबंधसे जीव घटता है, और बढ़ता है; जब महामच्छका शरीर पाता है, तब तो
शरीरकी वृद्धि होती है, और जब निगोदिया शरीर धारता है, तब घट जाता है और मुक्त
अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण जो नामकर्म उसका अभाव होनेसे जीवके प्रदेश न तो
सिकुड़ते हैं, न फै लते हैं, किन्तु चरमशरीरसे कुछ कम पुरुषाकार ही रहते हैं, इसलिये
शरीरप्रमाण हैं, यह निश्चय हुआ । यहाँ कोई प्रश्न करे, कि जब तक दीपकके आवरण
है, तब तक तो प्रकाश नहीं हो सकता, और जब उसके रोकनेवालेका अभाव हुआ, तब
प्रकाश विस्तृत होकर फै ल जाता है, उसी प्रकार मुक्ति अवस्थामें आवरणका अभाव होनेसे
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-५४