अथ व्यवहारनयेन जीवः पुण्यपापरूपो भवतीति प्रतिपादयति —
६०) एहु ववहारेँ जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु ।
बहुविह-भावेँ परिणवइ तेण जि धम्मु अहम्मु ।।६०।।
एष व्यवहारेण जीवः हेतुं लब्ध्वा कर्म ।
बहुविधभावेन परिणमति तेन एव धर्मः अधर्मः ।।६०।।
एहु ववहारें जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु एष प्रत्यक्षीभूतो जीवो व्यवहारनयेन हेतुं
लब्ध्वा । किम् । कर्मेति । बहुविहभावें परिणवइ तेण जि धम्मु अहम्मु बहुविधभावेन
विकल्पज्ञानेन परिणमति तेनैव कारणेन धर्मोऽधर्मश्च भवतीति । तद्यथा । एष जीवः शुद्धनिश्चयेन
जो बंध न हो तो मुक्त कहना निरर्थक है ।।५९।।
आगे व्यवहारनयसे यह जीव पुण्य-पापरूप होता है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – ६०
अन्वयार्थ : — [एष जीवः ] यह जीव [व्यवहारेण ] व्यवहारनयकर [कर्म हेतुं ]
कर्मरूप करणको [लब्ध्वा ] पाकरके [बहुविधभावेन ] अनेक विकल्परूप [परिणमित ]
परिणमता है । [तेन एव ] इसीसे [धर्मः अधर्मः ] पुण्य और पापरूप होता है ।
भावार्थ : — यह जीव शुद्ध निश्चयनयकर वीतराग चिदानन्द स्वभाव है, तो भी
व्यवहारनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके अभावसे रागादिरूप परिणमनेसे उपार्जन
किये शुभ-अशुभ कर्मोंके कारणको पाकर पुण्यी तथा पापी होता है । यद्यपि यह
व्यवहारनयकर पुण्य-पापरूप है, तो भी परमात्माकी अनुभूतिसे तन्मयी जो वीतराग
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और बाह्य पदार्थोंमें इच्छाके रोकनेरूप तप, ये चार निश्चयआराधना
हवे व्यवहारनयथी जीव पुण्य-पापरूप थाय छे, एम कहे छेः —
भावार्थः — आ जीव शुद्ध निश्चयनयथी वीतराग चिदानंद जेनो एक स्वभाव छे एवो
होवा छतां पण व्यवहारनयथी वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनना अभावथी उपार्जित एवा
शुभाशुभ कर्मरूप कारणने पामीने पुण्यरूप अने पापरूप थाय छे.
अहीं जो के व्यवहारनयथी जीव पुण्य – पापरूप थाय छे, तो पण परमात्मानी
अनुभूतिनी साथे अविनाभावी वीतरागसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र अने बाह्य पदार्थोमां इच्छानो
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६०