नरनारकादिरूपे उत्पन्न थयो नथी, कारण के कर्म अने आत्मा बन्ने अनादिना छे.
अहीं जीव अने कर्मना अनादिसंबंधना व्याख्यानथी आत्मा सदा मुक्त छे, सदा शिव
छे एम कोई कहे छे, तेनुं निराकरण कर्युं छे एवो भावार्थ छे. कह्युं पण छे केः — ‘‘मुक्त श्चेत्प्राग्भवे
बद्धो नो बद्धो मोचनं वृथा । अबद्धो मोचनं नैव मुञ्चेरथो निरर्थकः । अनादितो हि मुक्त श्चेत्पश्चाद्बंधः कथं
भवेत् । बंधनं मोचनं नो चेन्मुञ्चेरर्थो निरर्थकः ।।’’
अर्थः — जो जीव पहेला बंधायो होय तो मुक्त थाय, न बंधायो होय तो मूकावुं वृथा
छे. अबद्धने मूकावुं थतुं ज नथी, तेथी ‘मूकायो’ कहेवुं निरर्थक थाय छे. जो अनादिथी ज मुक्त
होय तो पछी बंध कई रीते थाय? अने जो बंधन अने मुक्ति न होय तो ‘मूकायो’ कहेवुं
निरर्थक होय. ५९.
जीवकर्मणामनादिसंबन्धः पर्यायसंतानेन बीजवृक्षवद्वयवहारनयेन संबन्धः कर्म तावत्तिष्ठति तथापि
शुद्धनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावेन जीवेन न तु जनितं कर्म तथाविधजीवोऽपि
स्वशुद्धात्मसंवित्त्यभावोपार्जितेन कर्मणा नरनारकादिरूपेण न जनितः कर्मात्मेति च
द्वयोरनादित्वादिति । अत्रानादिजीवकर्मणोस्संबन्धव्याख्यानेन सदा मुक्त : सदा शिवः कोऽप्यस्तीति
निराकृतमिति भावार्थः ।। तथा चोक्त म् — ‘‘मुक्त श्वेत्प्राग्भवे बद्धो नो बद्धो मोचनं वृथा । अबद्धो
मोचनं नैव मुञ्चेरर्थो निरर्थकः । अनादितो हि मुक्त श्चेत्पश्चाद्बन्धः कथं भवेत् । बन्धनं मोचनं
नो चेन्मुञ्चेरर्थो निरर्थकः ।।’’ ।।५९।।
उसी तरह पहले बीजरूप कर्मोंसे देह धारता है, देहमें नये-नये कर्मोंको विस्तारता है, यह
तो बीजसे वृक्ष हुआ । इसी प्रकार जन्म – सन्तान चली जाती है । परन्तु शुद्धनिश्चयनयसे विचारा
जावे, तो जीव निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव ही है । जीवने ये कर्म न तो उत्पन्न किये, और यह
जीव भी इन कर्मोंने नहीं पैदा किया । जीव भी अनादिका है, ये पुद्गलस्कंध भी अनादिके
हैं, जीव और कर्म नये नहीं है, जीव अनादिका कर्मोंसे बँधा है । और कर्मोंके क्षयसे मुक्त
होता है । इस व्याख्यानसे जो कोई ऐसा कहते हैं, कि आत्मा सदा मुक्त है, कर्मोंसे रहित
है, उनका निराकरण (खंडन) किया । ये वृथा कहते हैं, ऐसा तात्पर्य है । ऐसा दूसरी जगह
भी कहा है — ‘‘मुक्तश्चेत्’’ इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि जो यह जीव पहले बँधा हुआ
हो, तभी ‘मुक्त’ ऐसा कथन संभवता है, और पहले बँधा ही नहीं तो फि र ‘मुक्त’ ऐसा
कहना किस तरह ठीक हो सकता । मुक्त तो छूटे हुएका नाम है, सो जब बँधा ही नहीं,
तो फि र ‘छूटा’ किस तरह कहा जा सकता है । जो अबंध है, उसको छूटा कहना ठीक
नहीं । जो बिना बंध मुक्ति मानते हैं, उनका कथन निरर्थक है । जो यह अनादिका मुक्त
ही हो, तो पीछे बंध कैसे सम्भव हो सकता है । बंध होवे तभी मोचन छुटकारा हो सके ।
अधिकार-१ः दोहा-५९ ]परमात्मप्रकाशः [ १०५