अधिकार-१ः दोहा-११३ ]परमात्मप्रकाशः [ १८३
परमात्मनो व्याख्यानं गतम् ।
तदन्तरं किं तत् परद्रव्यमिति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति —
११३) जं णियदव्वहँ भिण्णु जडु तं परदव्वु वियाणि ।
पुग्गलु धम्माधम्मु णहु कालु वि पंचमु जाणि ।।११३।।
यत् निजद्रव्याद् भिन्नं जडं तत् परद्रव्यं जानीहि ।
पुद्गलः धर्माधर्मः नभः कालं अपि पञ्चमं जानीहि ।।११३।।
जमित्यादि । पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । जं यत् णियदव्वहं निजद्रव्यात्
भिण्णु भिन्नं पृथग्भूतं जडु जडं तं तत् परदव्वु वियाणि परद्रव्यं जानीहि । तच्च किम् ।
पुग्गलु धम्माधम्मु णहु पुद्गलधर्माधर्मनभोरूपं कालु वि कालमपि पंचमु जाणि पञ्चमं
जानीहीति । अनन्तचतुष्टयस्वरूपान्निजद्रव्याद्बाह्यं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरूपं जीवसंबद्धं शेषं
परमात्मा किया । आगे परलोक (परमात्मा) में ही मन लगा, परद्रव्यसे ममता छोड़ ऐसा कहा
गया था, उसमें शिष्यने प्रश्न किया कि परद्रव्य क्या हैं ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं —
गाथा – ११३
अन्वयार्थ : — [यत् ] जो [निजद्रव्याद् ] आत्म-पदार्थसे [भिन्नं ] जुदा [जडं ] जड़
पदार्थ है, [तत्] उसे [परद्रव्यं ] परद्रव्य [जानीहि ] जानो, और वह परद्रव्य [पुद्गलः
धर्माधर्मः नभः कालं अपि पंचमं ] पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और पाँचवाँ कालद्रव्य
[जानीहि ] ये सब परद्रव्य जानो ।
भावार्थ : — द्रव्य छह हैं, उनमेंसे पाँच जड़ और जीवको चैतन्य जानो । पुद्गल
धर्म, अधर्म, काल, आकाश ये सब जड़ हैं, इनको अपनेसे जुदा जानो और जीव भी अनंत
हैं, उन सबको अपनेसे भिन्न जानो । अनंतचतुष्टयस्वरूप अपना आत्मा है, उसीको निज
(अपना ) जानो, और जीवके भावकर्मरूप रागादिक तथा द्रव्यकर्म, ज्ञानावरणादि आठ
शब्दथी वाच्य एवा परमात्मानुं व्याख्यान समाप्त थयुं.
हवे, परलोक (परमात्मा)मां मन लगाव, परद्रव्यनी ममता छोड एम जे
कहेवामां आव्युं तेमां ‘परद्रव्य’ शुं छे? एवो शिष्ये प्रश्न कर्यो, तेनुं समाधान श्री गुरु करे
छेः —
भावार्थः — अनंतचतुष्टयस्वरूप निजद्रव्यथी बाह्य (भिन्न), भावकर्म, द्रव्यकर्म, अने