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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-११४
पुद्गलादिपञ्चभेदं यत्सर्वं तद्धेयमिति ।।११३।।
अथ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरन्तर्मुहूर्तेनापि कर्मजालं दहतीति ध्यानसामर्थ्यं दर्शयति —
११४) जइ णिविसद्धु वि कु वि करइ परमप्पइ अणुराउ ।
अग्गि-कणी जिम कट्ठ-गिरि डहइ असेसु वि पाउ ।।११४।।
यदि निमिषार्धमपि कोऽपि करोति परमात्मनि अनुरागम् ।
अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति अशेषमपि पापम् ।।११४।।
जइ इत्यादि । जइ णिविसद्धु वि यदि निमिषार्घमपि कु वि करइ कोऽपि कश्चित्
करोति । किं करोति । परमप्पइ अणुराउ परमात्मन्यनुरागम् । तदा किं करोति । अग्गिकणी जिम
कर्म, और शरीरादिक नोकर्म, और इनका संबंध अनादिसे है, परंतु जीवसे भिन्न है, इसलिये
अपने मत मान । पुद्गलादि पाँच भेद जड़ पदार्थ सब हेय जान, अपना स्वरूप ही उपादेय
है, उसीको आराधन कर ।।११३।।
आगे एक अन्तमुहूर्तमें कर्म-जालको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप अग्नि भस्म कर
डालती है ऐसी समाधिकी सामर्थ्य है, वही दिखाते हैं —
गाथा – ११४
अन्वयार्थ : — [यदि ] जो [निमिषार्धमपि ] आधे निमेषमात्र भी [कोऽपि ] कोई
[परमात्मनि ] परमात्मामें [अनुरागम् ] प्रीतिको [करोति ] करे तो [यथा ] जैसे
[अग्निकणिका ] अग्निकी कणी [काष्ठगिरिं ] काठके पहाड़को [दहति ] भस्म करती है,
उसी तरह [अशेषम् अपि पापम् ] सब ही पापोंको भस्म कर डाले ।
भावार्थ : — ऋद्धिका गर्व, रसायनका गर्व अर्थात् पारा वगैरह आदि धातुओंके
भस्म करनेका मद, अथवा नौ रसके जाननेका गर्व, कवि-कलाका मद, वादमें जीतनेका
नोकर्मरूप जीवना संबंधवाळुं अने बाकीनुं पुद्गलादि पांच भेदवाळुं जे कांई छे ते बधुंय हेय
छे. ११३.
हवे, वीतराग निर्विकल्प समाधि अन्तर्मुहूर्तमां ज कर्मजाळने बाळी नाखे छे एवुं ध्याननुं
सामर्थ्य छे, एम दर्शावे छेः —
भावार्थः — ॠद्धिनो गर्व, रसनो गर्व, (रसायननो गर्व अर्थात् पारा वगेरे धातुओने