अधिकार-१ः दोहा-११५ ]परमात्मप्रकाशः [ १८५
कट्ठगिरी अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति तथा डहइ असेसु वि पाउ दहत्यशेष पापमिति ।
तथाहि — ऋद्धिगौरवरसगौरवकवित्ववादित्वगमकत्ववाग्मित्वचतुर्विधशब्दगौरवस्वरूपप्रभृतिसमस्त-
विकल्पजालत्यागरूपेण महावातेन प्रज्वलिता निजशुद्धात्मतत्त्वध्यानाग्निकणिका
१
स्तोकाग्निकेन्धनराशिमिवान्तर्मुहूर्तेनापि चिरसंचितकर्मराशिं दहतीति । अत्रैवंविधं शुद्धात्मध्यान-
सामर्थ्यं ज्ञात्वा तदेव निरन्तरं भावनीयमिति भावार्थः ।।११४।।
अथ हे जीव चिन्ताजालं मुक्त्वा शुद्धात्मस्वरूपं निरन्तरं पश्येति निरूपयति —
११५) मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिच्चिंतउ होइ ।
चित्तु णिवेसहि परमपए देउ णिरंजणु जोइ ।।११५।।
मद, शास्त्रकी टीका बनानेका मद, शास्त्रके व्याख्यान करनेका मद, ये चार तरहका
शब्द-गौरव-स्वरूप इत्यादि अनेक विकल्प-जालोंका त्यागरूप प्रचंड पवन उससे
प्रज्वलित हुई (दहकती हुई) जो निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानरूप अग्निकी कणी है, जैसे
वह अग्निकी कणी काठके पर्वतको भस्म कर देती है, उसी तरह यह समस्त पापोंको
भस्म कर डालती है, अर्थात् जन्म-जन्मके इकट्ठे किये हुए कर्मोंको आधे निमेषमें नष्ट
कर देती है, ऐसी शुद्ध आत्म-ध्यानकी सामर्थ्य जानकर उसी ध्यानकी ही भावना सदा
करनी चाहिये ।।११४।।
आगे हे जीव, चिंताओंको छोड़कर शुद्धात्मस्वरूपको निरंतर देख, ऐसा कहते हैं —
भस्म करवानो मद, अथवा नव रस जाणवानो मद) अने कविकळानो मद, वादमां जीतवानो
मद, शास्त्रनी टीका बनाववानो मद, शास्त्रनुं व्याख्यान करवानो मद आ चार शब्दगौरव – ए
गर्वादिस्वरूपथी मांडीने समस्त विकल्पजाळोना त्यागरूप प्रचंड पवनथी प्रज्वलित निज शुद्ध
आत्मतत्त्वना ध्यानरूप अग्निकणिका, जेवी रीते अग्निनी नानी कणी इन्धनना पहाडने भस्मिभूत
करी नाखे छे, तेवी रीते, दीर्घकाळथी संचित करेला (अनेक भवोमां संचित करेला) कर्मराशिने
अन्तर्मुहूर्तमां भस्म करी नाखे छे – नष्ट करी दे छे.
अहीं, आवुं शुद्धात्मध्याननुं सामर्थ्य जाणीने ते ज निरंतर भाववा योग्य छे, एवो
भावार्थ छे. ११४.
हवे, हे जीव! चिंताजाळनो त्याग करीने शुद्धात्मस्वरूपने तुं निरंतर देख, एम कहे
छेः —
१ पाठान्तरः — स्तोकाग्निके = स्तोकाग्निकणिकानि