१८६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-११५
मुक्त्वा सकलां चिन्तां जीव निश्चिन्तः भूत्वा ।
चित्तं निवेशय परमपदे देवं निरञ्जनं पश्य ।।११५।।
मेल्लिवि इत्यादि । मेल्लिवि मुक्त्वा सयल समस्तं अवक्खडी देशभाषया चिन्तां
जिय हे जीव णिच्चिंतउ होइ निश्चिन्तो भूत्वा । किं कुरु । चित्तु णिवेसहि चित्तं निवेशय
धारय । क्क । परमपए निजपरमात्मपदे । पश्चात् किं कुरु । देउ णिरंजणु जोइ देवं निरञ्जनं
पश्येति । तद्यथा । हे जीव द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षास्वरूपपापध्यानादि समस्तचिन्ताजालं मुक्त्वा
निश्चिन्तो भूत्वा चित्तं परमात्मस्वरूपे स्थिरं कुरु, तदनन्तरं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्माञ्जनरहितं
देवं परमाराध्यं निजशुद्धात्मानं ध्यायेति भावार्थः । अपध्यानलक्षणं कथ्यते —
‘‘बन्धवधच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । आर्तध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने
गाथा – ११५
अन्वयार्थ : — [हे जीव ] हे जीव [सकलां ] समस्त [चिन्तां ] चिंताओंको
[मुक्त्वा ] छोड़कर [निश्चिन्तः भूत्वा ] निश्चित होकर तू [चित्तं ] अपने मनको [परमपदे ]
परमपदमें [निवेशय ] धारण कर, और [निरंजनं देवं ] निरंजनदेवको [पश्य ] देख ।
भावार्थ : — हे हंस, (जीव) देखे सुने और भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप खोटे ध्यान
आदि सब चिंताओंको छोड़कर अत्यंत निश्चिंत होकर अपने चित्तको परमात्मस्वरूपमें स्थिर
कर । उसके बाद भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मरूप अंजनसे रहित जो निरंजनदेव परम आराधने
योग्य अपना शुद्धात्मा है, उसका ध्यान कर । पहले यह कहा था कि खोटे ध्यानको छोड़,
सो खोटे ध्यानका नाम शास्त्रमें अपध्यान कहा है । अपध्यानका लक्षण कहते हैं ।
‘‘बंधवधेत्यादि’’ उसका अर्थ ऐसा है कि निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिन-शासनमें उसको
अपध्यान कहते हैं, जो द्वेषसे परके मारनेका बाँधनेका अथवा छेदनेका चिंतवन करे, और
भावार्थः — हे जीव! देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी आकांक्षास्वरूप
अपध्यानादि समस्त चिंताजाळने छोडीने, निश्चिंत थईने चित्तने परमात्मस्वरूपमां स्थिर कर,
अने भावकर्म, द्रव्यकर्म, अने नोकर्मरूप अंजन रहित परम आराध्य एवो देव जे निज शुद्धात्मा
छे तेनुं ध्यान कर.
अपध्याननुं स्वरूप कहे छेः ‘‘बन्धवधच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । आर्तध्यानमपध्यानं
शासति जिनशासने विशदाः ।।’’ (श्री रत्नकरंडश्रावकाचार गाथा ७८) (अर्थः — द्वेषभावथी परनां
वधबंधनछेदनादिनुं चिंतवन करवुं अने रागभावथी परस्त्रीआदिनुं चिंतवन करवुं तेने