Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 116 (Adhikar 1).

< Previous Page   Next Page >


Page 187 of 565
PDF/HTML Page 201 of 579

 

background image
अधिकार-१ः दोहा-११६ ]परमात्मप्रकाशः [ १८७
विशदाः ।।’’ ।।११५।।
अथ शिवशब्दवाच्ये निजशुद्धात्मनि ध्याते यत्सुखं भवति तत्सूत्रत्रयेण प्रतिपादयति
११६) जं सिवदंसणि परम-सुहु पावहि झाणु करंतु
तं सुहु भुवणि वि अत्थि णवि मेल्लिवि देउ अणंतु ।।११६।।
यत् शिवदर्शने परमसुखं प्राप्नोषि ध्यानं कुर्वन्
तत् सुखं भुवनेऽपि अस्ति नैव मुक्त्वा देवं अनन्तम् ।।११६।।
जमित्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियतेजं यत् सिवदंसणि स्वशुद्धात्मदर्शने
परमसुहु परमसुखं पावहि प्राप्नोषि हे प्रभाकरभट्ट किं कुर्वन् सन् झाणु करंतु ध्यानं कुर्वन्
सन् तं सुहु तत्पूर्वोक्त सुखं भुवणि वि भुवनेऽपि अत्थि णवि अस्ति नैव किं कृत्वा मेल्लिवि
रागभावसे परस्त्री आदिका चिंतवन करे उस अपध्यानके दो भेद हैं, एक आर्त्त दूसरा रौद्र
सो ये दोनों ही नरक, निगोदके कारण हैं, इसलिये विवेकियोंको त्यागने योग्य हैं ।।११५।।
आगे शिव शब्दसे कहे गये निज शुद्ध आत्माके ध्यान करने पर जो सुख होता है,
उस सुखको तीन दोहा-सूत्रोंमें वर्णन करते हैं
गाथा११६
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [ध्यानं कुर्वन् ] ध्यान करता हुआ [शिवदर्शने परमसुखं ]
निज शुद्धात्माके अवलोकनमें अत्यंत सुख [प्राप्नोषि ] हे प्रभाकर, तू पा सकता है, [तत्
सुखं ] वह सुख [भुवने अपि ] तीनलोकमें भी [अनन्तम् देवं मुक्त्वा ] परमात्म द्रव्यके
सिवाय [नैव अस्ति ] नहीं है
भावार्थ :शिव नाम कल्याणका है, सो कल्याणरूप ज्ञानस्वभाव निज शुद्धात्माको
जानो, उसका जो दर्शन अर्थात् अनुभव उसमें सुख होता है, वह सुख परमात्माको छोड़
जिनशासनमां विचक्षण पुरुषो (ज्ञाता पुरुषो) आर्तध्यान कहे छे. ११५.
हवे, ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा निजशुद्धात्मानुं ध्यान करतां, जे सुख थाय छे तेनुं कथन
त्रण गाथासूत्रोथी करे छेः
भावार्थअहीं, ‘शिव’ शब्दथी विशुद्धज्ञानस्वभाववाळो निजशुद्धात्मा जाणवो.
वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्तियुक्त समाधिने करतो थको तुं शिवदर्शनमां अर्थात् तेनुं दर्शन-