१८८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-११६
मुक्त्वा । कम् । देउ देवम् । कथंभूतम् । अणंतु अनन्तशब्दवाच्यपरमात्मपदार्थमिति । तथाहि —
शिवशब्देनात्र विशुद्धज्ञानस्वभावो निजशुद्धात्मा ज्ञातव्यः तस्य दर्शनमवलोकनमनुभवनं तस्मिन्
शिवदर्शने परमसुखं निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमाह्लादरूपं लभसे । किं कुर्वन् सन् ।
वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिं कुर्वन् । इत्थंभूतं सुखं अनन्तशब्दवाच्यो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तं
मुक्त्वा त्रिभुवनेऽपि नास्तीति । अयमत्रार्थः । शिवशब्दवाच्यो योऽसौ निजपरमात्मा स एव
रागद्वेषमोहपरिहारेण ध्यातः सन्ननाकुलत्वलक्षणं परमसुखं ददाति नान्यः कोऽपि शिवनामेति
पुरुषः ।। ।।११६।। अथ —
११७) जं मुणि लहइ अणंत – सुहु णिय – अप्पा झायंतु ।
तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिँ कोडि रमंतु ।।११७।।
तीनलोकमें नहीं है । वह सुख क्या है ? जो निर्विकल्प वीतराग परम आनंदरूप शुद्धात्मभाव
है, वही सुखी है । क्या करता हुआ यह सुख पाता है कि तीन गुप्तिरूप परमसमाधिमें आरूढ़
हुआ सता ध्यानी पुरुष ही उस सुखको पाता है । अनंत गुणरूप आत्म-तत्त्वके बिना वह सुख
तीनों लोकके स्वामी इन्द्रादिको भी नहीं है । इस कारण सारांश यह निकला कि शिव नामवाला
जो निज शुद्धात्मा है, वही राग-द्वेष मोहके त्यागकर ध्यान किया गया आकुलता रहित परम
सुखको देता है । संसारी जीवोंके जो इन्द्रियजनित सुख है, वह आकुलतारूप है, और आत्मीक
अतीन्द्रियसुख आकुलता रहित है, सो सुख ध्यानसे ही मिलता है, दूसरा कोई शिव या ब्रह्मा
या विष्णु नामका पुरुष देनेवाला नहीं है । आत्माका ही नाम शिव है, विष्णु है, ब्रह्मा है ।।११६।।
आगे कहते हैं कि जो सुख आत्माको ध्यावनेसे महामुनि पाते हैं, वह सुख इन्द्रादि
देवोंको दुर्लभ है —
अवलोकन – अनुभवन – तेमां निजशुद्धात्मानी भावनाथी उत्पन्न वीतराग परम आह्लादरूप परम
सुख तुं पामी शके तेवुं सुख, ‘अनंत’ शब्दथी वाच्य एवो जे आ परमात्मपदार्थ छे तेने छोडीने,
त्रण भुवनमां (क्यांय पण) नथी.
अहीं, ए अर्थ छे के ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवो जे निजपरमात्मा छे ते ज
रागद्वेषमोहना त्याग वडे ध्यान करवामां आवतां, अनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवा परमसुखने
आपे छे; बीजो कोई ‘शिव’ नामनो पुरुष परमसुखने आपतो नथी. ११६.
हवे, कहे छे के जे सुख आत्मानुं ध्यान करवाथी महामुनि पामे छे ते सुख इन्द्रादि
देवोने दुर्लभ छेः —