अधिकार-१ः दोहा-११७ ]परमात्मप्रकाशः [ १८९
यत् मुनिः लभते अनन्तसुखं निजात्मानं ध्यायन् ।
तत् सुखं इन्द्रोऽपि नैव लभते देवीनां कोटिं रम्यमाणः ।।११७।।
जमित्यादि । जं यत् मुणि मुनिस्तपोधनः लहइ लभते अणंतसुहु अनन्तसुखम् । किं
कुर्वन् सन् । णियअप्पा ज्ञायंतु निजात्मानं ध्यायन् सन् तं सुहु तत्पूर्वोक्तं सुखं इंदु वि
णवि लहइ इन्द्रोऽपि नैव लभते । किं कुर्वन् सन् । देविहिं कोडि रमंतु देवीनां कोटिं रमयन्
अनुभवन्निति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः स्वशुद्धात्मतत्त्व-
भावनोत्पन्नवीतरागपरमानन्दसहितो मुनिर्यत्सुखं लभते तद्देवेन्द्रादयोऽपि न लभन्त इति । तथा
चोक्त म् — ‘‘दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोहवह्निना । विमुक्त विषयासंगाः सुखायन्ते
तपोधनाः ।।११७।।
गाथा – ११७
अन्वयार्थ : — [निजात्मनं ध्यायन् ] अपनी आत्माको ध्यावता [मुनिः ] परम तपोधन
(मुनि) [यत् अनन्तसुखं ] जो अनंतसुख [लभते ] पाता है, [तत् सुखं ] उस सुखको [इन्द्रः
अपि ] इन्द्र भी [देवीनां कोटिं रम्यमाणः ] करोड़ देवियोंके साथ रमता हुआ [नैव ] नहीं
[लभते ] पाता ।
भावार्थ : — बाह्य और अंतरंग परिग्रहसे रहित निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ
जो वीतराग परमानंद सहित महामुनि जो सुख पाता है, उस सुखको इन्द्रादि भी नहीं पाते ।
जगत्में सुखी साधु ही हैं, अन्य कोई नहीं । यही कथन अन्य शास्त्रोंमें भी कहा है — ‘‘दह्यमाने
इत्यादि’’ इसका अर्थ ऐसा है कि महामोहरूपी अग्निसे जलते हुए इस जगत्में देव, मनुष्य,
तिर्यञ्च, नारकी सभी दुःखी हैं, और जिनके तप ही धन है, तथा सब विषयोंका संबंध जिन्होंने
छोड़ दिया है, ऐसा साधु मुनि जगत्में सुखी हैं ।।११७।।
आगे ऐसा कहते हैं कि वैरागी मुनि ही निज आत्माको जानते हुए निर्विकल्प सुखको
पाते हैं —
भावार्थः — बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित, स्वशुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी उत्पन्न वीतराग
परमानंद सहित मुनि जे सुख पामे छे ते सुख देवेन्द्रादि पण पामता नथी. ए तात्पयार्थ छे.
वळी कह्युं पण छे के ‘‘दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोहवह्निना । विमुक्त विषयासंगा सुखायन्ते तपोधनः ।।
[अर्थः — महामोहरूपी अग्निथी बळता आ जगतमां (बधा जीवो दुःखी छे, मात्र) जेमणे सर्व
विषयनो संग छोडी दीधो छे एवा मुनिओ ज सुखी छे.] ११७.
हवे, वैरागी मुनि ज निज आत्माने जाणतो थको निर्विकल्प सुखने पामे छे, एम हवे
कहे छेः —