Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 121 (Adhikar 1).

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अधिकार-१ः दोहा-१२१ ]परमात्मप्रकाशः [ १९३
बिम्बं यथा एहउ एतत् जाणि जानीहि हे प्रभाकरभट्ट णिभंतु निर्भ्रान्तं यथा भवतीति
अयमत्राभिप्रायः यथा मेघपटलप्रच्छादितो विद्यमानोऽपि सहस्रकरो न द्रश्यते तथा
केवलज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकोऽपि कामक्रोधादिविकल्पमेघप्रच्छादितः सन् देहमध्ये
शक्ति रूपेण विद्यमानोऽपि निजशुद्धात्मा दिनकरो न
द्रश्यते इति ।।१२०।।
अथानन्तरं विषयासक्तानां परमात्मा न द्रश्यत इति दर्शयति
१२१) जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि
ऐक्कहिँ केम समंति वढ बे खंडा पडियारि ।।१२१।।
यस्य हरिणाक्षी हृदये तस्य नैव ब्रह्म विचारय
एकस्मिन् कथं समायातौ वत्स द्वौ खंडौ प्रत्याकारे (?) ।।१२१।।
जसु इत्यादि जसु यस्य पुरुषस्य हरिणच्छि हरिणाक्षी स्त्री हियवडए हृदये
केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप किरणोंकर लोक-अलोकका प्रकाशनेवाला भी इस देह (घट) के
बीचमें शक्तिरूपसे विद्यमान निज शुद्धात्मस्वरूप (परमज्योति चिद्रूप) सूर्य काम-क्रोधादि राग
-द्वेष भावोंस्वरूप विकल्प-जालरूप मेघसे ढँका हुआ नहीं दिखता
।।१२०।।
आगे जो विषयोंमें लीन हैं, उनको परमात्माका दर्शन नहीं होता, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा१२१
अन्वयार्थ :[यस्य हृदये ] जिस पुरुषके चित्तमें [हरियाक्षी ] मृगके समान
नेत्रवाली स्त्री [वसति ] बस रही है [तस्य ] उसके [ब्रह्म ] अपना शुद्धात्मा [नैव ] नहीं है,
अर्थात् उसके शुद्धात्माका विचार नहीं होता, ऐसा हे प्रभाकर भट्ट, तू अपने मनमें [विचारय ]
विचार कर
बड़े [बत ] खेदकी बात है कि [इकस्मिन् ] एक [प्रतिकारे ] म्यानमें [द्वौ
खङ्गो ] दो तलवारें [कथं समायातौ ] कैसे आ सकती हैं ? कभी नहीं समा सकतीं
भावार्थ :वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकर उत्पन्न हुआ अनाकुलतारूप परम आनंद
थयो थको, केवळज्ञानरूप किरणोथी लोकालोकनो प्रकाशक निजशुद्धात्मारूप सूर्य शरीरमां शक्तिरूपे
विद्यमान होवा छतां पण देखातो नथी, ए अभिप्राय छे. १२०.
त्यार पछी ‘विषयासक्त’ जीवोने (जेओ विषयोमां आसक्त छे तेमने) परमात्मा देखातो
नथी, एम दर्शावे छेः
भावार्थवीतराग निर्विकल्प परम समाधिथी उत्पन्न, अनाकुळता जेनुं लक्षण छे