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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१२३
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अथ स्थलखंख्याबाह्यं प्रक्षेपकद्वयं कथ्यते —
१२३) मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स ।
बीहि वि समरसि हूवाहँ पुज्ज चडावउँ कस्स ।।१२३“२।।
मनः मिलितं परमेश्वरस्य परमेश्वरः अपि मनसः ।
द्वयोरपि समरसीभूतयोः पूजां समारोपयामि कस्य ।।१२३“२।।
मणु इत्यादि । मणु मनो विकल्परूपं मिलियउ मिलितं तन्मयं जातम् । कस्य
संबन्धित्वेन । परमेसरहं १परमेश्वरस्य परमेसरु वि मणस्स परमेश्वरोऽपि मनः संबन्धित्वेन लीनो
धारण करनेवाला मुनि होता है । अर्थात् ऐसे समभावके धारक शांतचित्त योगीश्वरोंके चित्तमें
चिदानंददेव तिष्ठता है ।।१२३।।
इसप्रकार इकतीस दोहा-सूत्रोंका-चूलिका स्थल कहा । चूलिका नाम अंतका है, सो
पहले स्थलका अंत यहाँ तक हुआ । आगे स्थलकी संख्यासे सिवाय दो प्रक्षेपक दोहा कहते
हैं —
गाथा – १२३❃२
अन्वयार्थ : — [मनः ] विकल्परूप मन [परमेश्वरस्य मिलितं ] भगवान् आत्मारामसे
मिल गया – तन्मयी हो गया [परमेश्वरः अपि ] और परमेश्वर भी [मनसः ] मनसे मिल गया
तो [द्वयोः अपि ] दोनों ही को [समरसीभूतयोः ] समरस (आपसमें एकमएक) होने पर
[कस्य ] किसकी अब मैं [पूजां समारोपयामि ] पूजा करूँ । अर्थात् निश्चयनयकर किसीको
पूजना, सामग्री चढ़ाना नहीं रहा ।
भावार्थ : — जब तक मन भगवानसे नहीं मिला था, तब तक पूजा करता था, और
जब मन प्रभुसे मिल गया, तब पूजाका प्रयोजन नहीं है । यद्यपि व्यवहारनयकर गृहस्थ-
ए प्रमाणे एकत्रीस सूत्रोथी चूलिकास्थळ समाप्त थयुं.
(चूलिका नाम अंतनुं छे, ते पहेला स्थळनो अंत अहीं सुधी थयो.)
हवे, स्थळसंख्याथी बाह्य एवा बे प्रक्षेपको कहे छेः —
भावार्थः — जो के व्यवहारनयथी गृहस्थावस्थामां विषयकषायरूप दुर्ध्याननी वंचना अर्थे
अने धर्मनी वृद्धि अर्थे पूजा, अभिषेक, दानादि व्यवहार होय छे तोपण वीतराग निर्विकल्प
१ पाठान्तरः — परमेश्वरस्य = परमोश्वरस्य परमात्मा