अधिकार-१ः दोहा-१२३ ]परमात्मप्रकाशः [ १९७
देउ इत्यादि । देउ देवः परमाराध्यः ण नास्ति कस्मिन् कस्मिन् नास्ति । देउले
देवकुले देवतागृहे णवि सिलए नैव शिलाप्रतिमायां, णवि लिप्पइ नैव लेपप्रतिमायां, णवि
चित्ति नैव चित्रप्रतिमायाम् । तर्हि क्व तिष्ठति । निश्चयेन अखउ अक्षयः णिरंजणु
कर्माञ्जनरहितः । पुनरपि किंविशिष्टः । णाणमउ ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः सिउ
शिवशब्द वाच्यो निजपरमात्मा । एवंगुणविशिष्टः परमात्मा देव इति । संठिउ संस्थितः
समचित्ति समभावे समभावपरिणतमनसि इति । तद्यथा । यद्यपि व्यवहारेण धर्मवर्तनानिमित्तं
स्थापनारूपेण पूर्वोक्त गुणलक्षणो देवो देवगृहादौ तिष्ठति तथापिनिश्चयेन शत्रुमित्र-
सुखदुःखजीवितमरणादिसमतारूपे वीतरागसहजानन्दैकरूपपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभूति-
रूपाभेदरत्नत्रयात्मकसमचित्ते शिवशब्दवाच्यः परमात्मा तिष्ठतीति भावार्थः ।। तथा चोक्तं
समचित्तपरिणतश्रमणलक्षणम् — ‘‘समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो । समलोह-
कंचणो वि य जीविदमरणे समो समणो ।।’’ ।।१२३।। इत्येकत्रिंशत्सूत्रैश्चूलिकास्थलं गतम् ।
विराज रहा है, अन्य जगह नहीं है ।
भावार्थ : — यद्यपि व्यवहारनयकर धर्मकी प्रवृत्तिके लिये स्थापनारूप अरहंतदेव
देवालयमें तिष्ठते हैं, धातु पाषाणकी प्रतिमाको देव कहते हैं तो भी निश्चयनयकर शत्रु मित्र सुख
-दुःख जीवित-मरण जिसके समान हैं, तथा वीतराग सहजानंदस्वरूप परमात्मतत्त्वके सम्यक्
श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमें लीन ऐसे ज्ञानियोंके सम चित्तमें परमात्मा तिष्ठता है ।
ऐसा ही अन्य जगह भी समचित्तको परिणत हुए मुनियोंका लक्षण कहा है । ‘‘समस्तु’’ इत्यादि ।
इसका अर्थ ऐसा है कि जिसके सब दुःख समान हैं, शत्रु-मित्रोंका वर्ग समान हैं, प्रशंसा निंदा
समान हैं, पत्थर और सोना समान है, और जीवन-मरण जिसके समान हैं, ऐसा समभावका
भावार्थः — जो के व्यवहारनयथी धर्मनी वर्तना माटे स्थापनारूपे पूर्वोक्त गुणना
लक्षणवाळा देव देवालयमां रहे छे तोपण, निश्चयनयथी जे शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, जीवित-मरण
आदिमां समतारूप छे अने जे वीतराग सहजानंद ज जेनुं एक रूप छे एवा परमात्मतत्त्वनां
सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्अनुभूतिरूप अभेद रत्नत्रयात्मक समचित्तमां ‘शिव’ शब्दथी
वाच्य एवो परमात्मा रहे छे. समचित्तमां परिणत श्रमणनुं स्वरूप (श्री प्रवचनसारना त्रीजा
अधिकारनी २४१ गाथामां) कह्युं छे के ‘‘समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो ।
समलोट्ठुकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।।
(अर्थः — शत्रु अने बंधुवर्ग जेने समान छे, सुख अने दुःख जेने समान छे, प्रशंसा
अने निंदा प्रत्ये जेने समता छे, लोष्ट (माटीनुं ढेफुं) अने कांचन जेने समान छे तेम ज जीवित
अने मरण प्रत्ये जेने समता छे, ते श्रमण छे.) १२३.