Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 123*1 (Adhikar 1).

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१९६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१२३
चित्ताकुलत्वोत्पादकेन स्त्रीरूपावलोकनसेवनचिन्तादिसमुत्पन्नेन रागादिकल्लोलमालाजालेन रहिते
निजशुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानसहजसमुत्पन्नवीतरागपरमसुखसुधारसस्वरूपेण निर्मलनीरेण पूर्णे
वीतरागस्वसंवेदनजनितमानससरोवरे परमात्मा लीनस्तिष्ठति
कथंभूतः निर्मलगुणसाद्रश्येन
हंस इव हंसपक्षी इव कुत्र प्रसिद्धः सरोवरे हंस इवेत्यभिप्रायो भगवतां
श्रीयोगीन्द्रदेवानाम् ।।१२२।।
उक्तं च
१२३) देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति
अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम - चित्ति ।।१२३।।
देवः न देवकुले नैव शिलायां नैव लेप्ये नैव चित्रे
अक्षयः निरञ्जनः ज्ञानमयः शिवः संस्थितः समचित्ते ।।१२३।।
वह आत्मदेव निर्मल गुणोंकी उज्ज्वलताकर हंसके समान है जैसे हंसोंका निवास-स्थान
मानसरोवर है, वैसे ब्रह्मका निवास-स्थान ज्ञानियोंका निर्मल चित्त है ऐसा श्रीयोगीन्द्रदेवका
अभिप्राय है ।।१२२।।
आगे इसी बातको दृढ़ करते हैं
गाथा१२३
अन्वयार्थ :[देवः ] आत्मदेव [देवकुले ] देवालयमें (मंदिरमें) [न ] नहीं है,
[शिलायां नैव ] पाषाणकी प्रतिमामें भी नहीं है, [लेपे नैव ] लेपमें भी नहीं है, [चित्रे नैव ]
चित्रामकी मूर्तिमें भी नहीं है
लेप और चित्रामकी मूर्ति लौकिकजन बनाते हैं, पंडितजन तो
धातु पाषाणकी ही प्रतिमा मानते हैं, सो लौकिक दृष्टांतके लिये दोहामें लेप चित्रामका भी नाम
आ गया
वह देव किसी जगह नहीं रहता वह देव [अक्षयः ] अविनाशी है, [निरंजनः ]
कर्माञ्जनसे रहित है, [ज्ञानमयः ] केवलज्ञानकर पूर्ण है, [शिवः ] ऐसा निज परमात्मा
[समचित्ते संस्थितः ] समभावमें तिष्ठ रहा है, अर्थात् समभावको परिणत हुए साधुओंके मनमें
निर्मळगुणनी समानताथी हंस जेवा (-हंस पक्षी जेवा-) छे. जेम हंसनुं निवासस्थान
मानसरोवर छे तेम ब्रह्मनुं निवासस्थान निर्मळ चित्त छे, एवो श्री भगवान योगीन्द्रदेवनो
अभिप्राय छे. १२२.
वळी, कह्युं छे केः