अधिकार-१ः दोहा-१२२ ]परमात्मप्रकाशः [ १९५
अथ रागादिरहिते निजमनसि परमात्मा निवसतीति दर्शयति —
१२२) णिय-मणि णिम्मलि णाणियहँ णिवसइ देउ अणाइ ।
हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ ।।१२२।।
निजमनसि निर्मले ज्ञानिनां निवसति देवः अनादिः ।
हंसः सरोवरे लीनः यथा मम ईद्रशः प्रतिभाति ।।१२२।।
णियमणि इत्यादि । णियमणि निजमनसि । किंविशिष्टे । णिम्मलि निर्मले
रागादिमलरहिते । केषां मनसि । णाणियहं ज्ञानिनां णिवसइ निवसति । कोऽसौ । देउ देवः
आराध्यः किंविशिष्टः । अणाइ अनादिः । क इव कुत्र । हंसा सरवरि लीणु जिम हंसः सरोवरे
लीनो यथा हे प्रभाकरभट्ट महु एहउ पडिहाइ ममैवं प्रतिभातीति । तथाहि । पूर्वसूत्रकथितेन
आगे रागादि रहित निज मनमें परमात्मा निवास करता है, ऐसा दिखाते हैं —
गाथा – १२२
अन्वयार्थ : — [ज्ञानिनां ] ज्ञानियोंके [निर्मले ] रागादि मल रहित [निजमनसि ] निज
मनमें [अनादिः देवः ] अनादि देव आराधने योग्य शुद्धात्मा [निवसति ] निवास कर रहा है,
[यथा ] जैसे [सरोवरे ] मानस सरोवरमें [लीनः हंसः ] लीन हुआ हंस बसता है । सो हे
प्रभाकर भट्ट [मम ] मुझे [एवं ] ऐसा [प्रतिभाति ] मालूम पड़ता है । ऐसा वचन श्री
योगीन्द्रदेवने प्रभाकरभट्टसे कहा ।
भावार्थ : — पहले दोहेमें जो कहा था कि चित्तकी आकुलताके उपजानेवाले
स्त्रीरूपका देखना सेवना चिंतादिकोंसे उत्पन्न हुए रागादितरंगोंके समूह हैं, उनकर रहित निज
शुद्धात्मद्रव्यका सम्यक् श्रद्धान स्वाभाविक ज्ञान उससे वीतराग परमसुखरूप अमृतरस उस
स्वरूप निर्मल नीरसे भरे हुए ज्ञानियोंके मानससरोवरमें परमात्मादेवरूपी हंस निरंतर रहता है ।
हवे, रागादि रहित निजमनमां परमात्मा वसे छे, एम दर्शावे छेः —
भावार्थः — पूर्व सूत्रमां कहेली, चित्तनी आकुळतानी उत्पादक एवी, स्त्रीरूपने
देखवानी, सेववानी अभिलाषादिथी उत्पन्न रागादि कल्लोलमाळानी जाळथी रहित,
निजशुद्धात्मद्रव्यनी सम्यक्श्रद्धाथी सहज उत्पन्न वीतराग परमसुखसुधारसस्वरूप निर्मळ
नीरथी पूर्ण, वीतराग स्वसंवेदनजनित मानससरोवरमां परमात्मा लीन रहे छे. ते परमात्मा