अन्यद् यदि जगतोऽपि अधिकतरः गुणगणः तस्य न भवति ।
ततः त्रिलोकऽपि किं धरति निजशिर उपरि तमेव ।।६।।
अणु इत्यादि । अणु पुनः जइ यदि चेत् जगहँ वि जगतोऽपि सकाशात् अहिययरु
अतिशयेनाधिकः अधिकतरः । कोऽसौ । गुण-गुणु गुणगणः तासु तस्य मोक्षस्य ण होइ न
भवति । तो ततः कारणात् तइलोउ वि त्रिलोकोऽपि कर्ता । किं धरइ किमर्थं धरति ।
कस्मिन् । णिय-सिर-उप्परि निजशिरसि उपरि । किं धरइ किं धरति । सोइ तमेव मोक्षमिति ।
तद्यथा । यदि तस्य मोक्षस्य पूर्वोक्त : सम्यक्त्वादिगुणगणो न भवति तर्हि लोकः कर्ता
निजमस्तकस्योपरि तत्किं धरतीति । अत्रानेन गुणगणस्थापनेन किं कृतं भवति, बुद्धिसुख-
गाथा – ६
अन्वयार्थ : — [अन्यद् ] फि र [यदि ] जो [जगतः अपि ] सब लोकसे भी
[अधिकतरः ] बहुत ज्यादः [गुणगणः ] गुणोंका समूह [तस्य ] उस मोक्षमें [न भवति ] नहीं
होता, [ततः ] तो [त्रिलोकः अपि ] तीनों ही लोक [निजशिरसि ] अपने मस्तकके [उपरि ]
ऊ पर [तमेव ] उसी मोक्षको [किं धरति ] क्यों रखते ? ।
भावार्थ : — मोक्ष लोकके शिखर (अग्रभाग) पर है, सो सब लोकोंसे मोक्षमें बहुत
ज्यादा गुण हैं, इसीलिये उसको लोक अपने सिर पर रखता है । कोई किसीको अपने सिरपर
रखता है, वह अपनेसे अधिक गुणवाला जानकर ही रखता है । यदि क्षायिक – सम्यक्त्व
केवलदर्शनादि अनंत गुण मोक्षमें न होते, तो मोक्ष सबके सिर पर न होता, मोक्षके ऊ पर अन्य
कोई स्थान नहीं हैं, सबके ऊ पर मोक्ष ही है, और मोक्षके आगे अनंत अलोक है, वह शून्य
है, वहाँ कोई स्थान नहीं है । वह अनंत अलोक भी सिद्धोंके ज्ञानमें भास रहा है । यहाँ पर
मोक्षमें अनंत गुणोंके स्थापन करनेसे मिथ्यादृष्टियोंका खंडन किया । कोई मिथ्यादृष्टि
वैशेषिकादि ऐसा कहते हैं, कि जो बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार
भावार्थः — जो ते मोक्षमां पूर्वोक्त सम्यक्त्वादि गुणो न होत तो लोक तेने पोताना
मस्तक उपर शा माटे राखे?
अहीं, आ गुणगणनी स्थापनाथी शुं करवामां आव्युं छे? (अहीं, मोक्षमां अनंत गुणोनुं
स्थापन करवाथी मिथ्याद्रष्टिओनुं खंडन करवामां आव्युं छे ते शी रीते) ते कहे छेः —
(१)बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार नामना नव गुणोना
अभावने मोक्ष वैशेषिको माने छे; तेनो निषेध कर्यो छे.
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-६