कह्युं छे के ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ शुद्ध द्रव्यार्थिकनयथी (शुद्धनयथी) सर्व संसारी जीवो
शुद्ध बुद्ध एकस्वभाववाळा छे.
शा कारणथी (तेओ कार्यसमयसाररूप सिद्ध परमात्मा थया छे)? करणरूप ध्यानाग्नि
वडे (तेओ कार्यसमयसाररूप सिद्ध परमात्मा थया छे ). ‘ध्यान’ शब्दथी आगमनी अपेक्षाए
वीतराग निर्विकल्प शुक्लध्यान अने अध्यात्मनी अपेक्षाए वीतराग निर्विकल्प रूपातीतध्यान
समजवुं. कह्युं छे के (बृहत द्रव्यसंग्रह गाथा ४८नी टीका) ❃
‘‘पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिंण्डस्थं
स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।’’ (अर्थः — मंत्रवाक्योमां स्थित ते ‘पदस्थ’
ध्यान छे, निज आत्मानुं चिंतन ते ‘पिंडस्थ’ ध्यान छे; सर्वचिद्रूपनुं चिंतन ते ‘रूपस्थ’ ध्यान
छे अने निरंजननुं ध्यान ते रूपातीत ध्यान छे.) अने ते ध्यान वस्तुवृत्तिथी शुद्ध आत्मानां
सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्अनुष्ठानरूप अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिथी समुत्पन्न
शक्त्यप्रेक्षया पूर्वमेव शुद्धबुद्धैकस्वभावस्तिष्ठति धातुपाषाणे सुवर्णशक्ति वत् । तथा चोक्तं
द्रव्यसंग्रहे – शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ सर्वे जीवाः शुद्धबुद्धैकस्वभावाः । केन
जाताः । ध्यानाग्निना करणभूतेन ध्यानशब्देन आगमापेक्षया वीतरागनिर्विकल्पशुक्लध्यानम्,
अध्यात्मापेक्षया वीतरागनिर्विकल्परूपातीतध्यानम् । तथा चोक्त म् – ‘‘पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं
स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।’’ तच्च ध्यानं वस्तुवृत्त्या
शुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसमरसी-
१० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१
कभी नहीं पाई थी, वह कर्म-कलंकके विनाशसे पाई । यह पर्यायार्थिकनयकी मुख्यतासे कथन
है और द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा यह जीव सदा ही शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव तिष्ठता
है । जैसे धातु पाषाणके मेलमें भी शक्तिरूप सुवर्ण मौजूद ही है, क्योंकि सुवर्ण-शक्ति सुवर्णमें
सदा ही रहती है, जब परवस्तुका संयोग दूर हो जाता है, तब वह व्यक्तिरूप होता है । सारांश
यह है कि शक्तिरूप तो पहले ही था, लेकिन व्यक्तिरूप सिद्धपर्याय पाने से हुआ । शुद्ध
द्रव्यार्थिकनयकर सभी जीव सदा शुद्ध ही हैं । ऐसा ही द्रव्यसंग्रहमें कहा है, ‘‘सव्वे सुद्धाहु
सुद्धणया’ अर्थात् शुद्ध नयकर सभी जीव शक्तिरूप शुद्ध हैं और पर्यायर्थिकनयसे व्यक्तिकर
शुद्ध हुए । किस कारणसे ? ध्यानाग्निना अर्थात् ध्यानरूपी अग्निकर कर्मरूपी कलंकोंको भस्म
किया, तब सिद्ध परमात्मा हुए । वह ध्यान कौनसा है ? आगमकी अपेक्षा तो वीतराग
निर्विकल्प शुक्लध्यान है और अध्यात्मकी अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प रूपातीत ध्यान है । तथा
दूसरी जगह भी कहा है — ‘‘पदस्थं’’ इत्यादि, उसका अर्थ यह है, कि णमोकारमंत्र आदिका
जो ध्यान है, वह पदस्थ कहलाता है, पिंड (शरीर) में ठहरा हुआ जो निज आत्मा है, उसका
❃बृहत द्रव्यसंग्रह गाथा ४८नी टीका