दव्वइं इत्यादि । दव्वइं द्रव्याणि जाणइ जानाति । कथंभूतानि । जहठियइं यथास्थितानि
वीतरागस्वसंवेदनलक्षणस्य निश्चयसम्यग्ज्ञानस्य परंपरया कारणभूतेन परमागमज्ञानेन
परिच्छिनत्तीति । न केवलं परिच्छिनत्ति तह तथैव जगि इह जगति मण्णइ मन्यते
निजात्मद्रव्यमेवोपादेयमिति रुचिरूपं यन्निश्चयसम्यक्त्वं तस्य परंपरया कारणभूतेन — ‘‘मूढत्रयं
मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः’’ इति
निर्दोष श्रद्धान करे, [स एव ] वही [आत्मनः संबंधी ] आत्माका [अविचलः भावः ]
चलमलिनावगाढ दोष रहित निश्चल भाव है, [स एव ] वही आत्मभाव [दर्शनं ] सम्यक्दर्शन
है ।
भावार्थ : — यह जगत् छह द्रव्यमयी है, सो इन द्रव्योंको अच्छी तरह जानकर
श्रद्धान करे, जिसमें संदेह नहीं वह सम्यग्दर्शन है, यह सम्यग्दर्शन आत्माका निज स्वभाव
है । वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन निश्चयसम्यग्ज्ञान उसका परम्पराय कारण जो परमागमका
ज्ञान उसे अच्छी तरह जान, और मनमें मानें, यह निश्चय करे कि इन सब द्रव्योंमें निज
आत्मद्रव्य ही ध्यावने योग्य है, ऐसा रुचिरूप जो निश्चयसम्यक्त्व है, उसका परम्परायकारण
व्यवहारसम्यक्त्व देव-गुरु-धर्मकी श्रद्धा उसे स्वीकार करे । व्यवहारसम्यक्त्वके पच्चीस दोष
हैं, उनको छोड़े । उन पच्चीसको ‘‘मूढ़त्रयं’’ इत्यादि श्लोकमें कहा है । इसका अर्थ ऐसा
है कि जहाँ देव-कुदेवका विचार नहीं है, वह तो देवमूढ़, जहाँ सुगुरु-कुगुरुका विचार नहीं
भावार्थः — द्रव्योने जाणे छे – वीतराग स्वसंवेदन जेनुं स्वरूप छे एवा निश्चय
सम्यग्ज्ञानना परंपराए कारणभूत परमागमना ज्ञानथी आ जगतमां यथास्थित द्रव्योनुं
परिच्छेदन करे छे, मात्र परिच्छेदन करे छे एटलुं ज नहि पण, ‘निजआत्मद्रव्य ज
उपादेय छे’ एवी रुचिरूप जे निश्चयसम्यक्त्व छे तेनी परंपराए कारणभूत एवा ‘‘मूढत्रयं
मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषा पंचविंशतिः’’ (श्री सोमदेवकृत
यशस्तिलक पृष्ठ १२४) (अर्थः — १त्रण मूढता, २आठ मद, ३छ अनायतन, ४आठ शंकादि
अंगो — ए प्रमाणे सम्यग्दर्शनना पच्चीश दोष छे.) एम श्लोकमां कह्या प्रमाणे सम्यक्त्वना
१. त्रण मूढता – देवमूढता, गुरुमूढता, धर्ममूढता.
२. आठ मद – जातिमद, कुळमद, धनमद, तपमद, रूपमद, बळमद, विद्यामद, राजमद.
३. छ अनायतन – कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मनी अने ए त्रणेना आराधकोनी प्रशंसा.
४. आठ अंगो – शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढता, परदोष-कथन, अस्थिरकरण, साधर्मीओ प्रत्ये प्रेम न
राखवो, अप्रभावना.
अधिकार-२ः दोहा-१५ ]परमात्मप्रकाशः [ २२७