श्लोककथितपञ्चविंशतिसम्यक्त्वमलत्यागेन श्रद्दधातीति । एवं द्रव्याणि जानाति श्रद्दधाति ।
कोऽसौ । अप्पहं केरउ भावडउ आत्मनः संबंधिभावः परिणामः । किंविशिष्टो भावः । अविचलु
अविचलोऽपि चलमलिनागाढदोषरहितः दंसणु दर्शनं सम्यक्त्वं भवतीति । क एव । सो जि स
एव पूर्वोक्तो जीवभाव इति । अयमत्र भावार्थः । इदमेव सम्यक्त्वं चिन्तामणिरिदमेव कल्पवृक्ष
इदमेव कामधेनुरिति मत्वा भोगाकांक्षास्वरूपादिसमस्तविकल्पजालं वर्जनीयमिति । तथा
चोक्त म् — ‘‘हस्ते चिन्तामणिर्यस्य गृहे यस्य सुरद्रुमः । कामधेनुर्धने यस्य तस्य का प्रार्थना
परा ।।’’ ।।१५।।
है, वह गुरुमूढ़, जहाँ धर्म-कुधर्मका विचार नहीं है, वह धर्ममूढ़ ये तीन मूढ़ता; और
जातिमद, कुलमद, धनमद, रूपमद, तपमद, बलमद, विद्यामद, राजमद ये आठ मद ।
कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, इनकी और इनके आराधकोंकी जो प्रशंसा वह छह अनायतन और
निःशंकितादि आठ अंगोंसे विपरीत शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ता, परदोष – कथन,
अथिरकरण, साधर्मियोंसे स्नेह नहीं रखना, और जिनधर्मकी प्रभावना नहीं करना, ये शंकादि
आठ मल, इसप्रकार सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं, इन दोषोंको छोड़कर तत्त्वोंकी श्रद्धा
करे, वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है । जहाँ अस्थिर बुद्धि नहीं है, और परिणामोंकी
मलिनता नहीं, और शिथिलता नहीं, वह सम्यक्त्व है । यह सम्यग्दर्शन ही कल्पवृक्ष,
कामधेनु चिंतामणि है, ऐसा जानकर भोगोंकी वाँछारूप जो विकल्प उनको छोड़कर
सम्यक्त्वका ग्रहण करना चाहिये । ऐसा कहा है ‘हस्ते’ इत्यादि जिसके हाथमें चिन्तामणि
है, धनमें कामधेनु है, और जिसके घरमें कल्पवृक्ष है, उसके अन्य क्या प्रार्थनाकी
आवश्यकता है ? कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामणि तो कहने मात्र हैं, सम्यक्त्व ही कल्पवृक्ष,
कामधेनु, चिंतामणि है, ऐसा जानना ।।१५।।
पचीस मलना त्याग वडे द्रव्योनी श्रद्धा करे छे. आ रीते द्रव्योने आत्मानो अविचळ
चळ, मळ, अगाढ दोष रहित परिणाम – पूर्वोक्त जीवभाव – जाणे छे, श्रद्धे छे ते
सम्यक्त्व छे.
अहीं, आ भावार्थ छे के आ ज सम्यक्त्व चिंतामणि छे, आ ज कल्पवृक्ष छे,
आ ज कामधेनु छे एम जाणीने भोग, आकांक्षा स्वरूपथी मांडीने समस्त विकल्प जाळने
छोडवा योग्य छे. कह्युं पण छे के – ‘‘हस्ते चिंतामणिर्यस्य गृहे यस्य सुरद्रुमः । कामधेनुर्धने यस्य
तस्य का प्रार्थना परा ।।’’ (अर्थः — जेना हाथमां चिंतामणिरत्न छे, जेने घेर कल्पवृक्ष छे,
जेना धनमां कामधेनु छे तेने अन्य प्रार्थना करवानी शी जरूर छे?) १५.
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१५