तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः ।।१७।।
अथानन्तरं सूत्रचतुष्टयेन जीवादिषड्द्रव्याणां क्रमेण प्रत्येकं लक्षणं कथ्यते —
१४४) मुत्ति – विहूणउ णाणमउ परमाणंद – सहाउ ।
णियमिं जोइय अप्पु मुणि णिच्चु णिरंजणु भाउ ।।१८।।
मूर्तिविहीनः ज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः ।
नियमेन योगिन् आत्मानं मन्यस्व नित्यं निरञ्जनं भावम् ।।१८।।
मुत्तिविहूणउ इत्यादि । मुत्ति-विहूणउ अमूर्तः शुद्धात्मनो विलक्षणया स्पर्श-
रसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या विहीनत्वात् मूर्तिविहीनः । णाणमउ क्रमकरणव्यवधानरहितेन
लोकालोकप्रकाशकेन केवलज्ञानेन निर्वृत्तत्वात् ज्ञानमयः । परमाणंद – सहाउ वीतराग-
है । अब वास्तवमें (असलमें) विचारा जावे, तो गृहस्थ अवस्थामें इनके सरागसम्यक्त्व ही है
और जो सरागसम्यक्त्व है, वह व्यवहार ही है, ऐसा जानो ।।१७।।
आगे चार दोहोंसे छह द्रव्योंके क्रमसे हरएकके लक्षण कहते हैं —
गाथा – १८
अन्वयार्थ : — [योगिन् ] हे योगी, [नियमेन ] निश्चय करके [आत्मानं ] तू आत्माको
ऐसा [मन्यस्व ] जान । कैसा है आत्मा ? [मूर्तिविहीनः ] मूर्तिसे रहित है, [ज्ञानमयः ] ज्ञानमयी
है, [परमानंदस्वभावः ] परमानंद स्वभाववाला है, [नित्यं ] नित्य है, [निरंजनं ] निरंजन है,
[भावम् ] ऐसा जीवपदार्थ है ।
भावार्थ : — यह आत्मा अमूर्तीक शुद्धात्मासे भिन्न जो स्पर्श-रस-गंध-वर्णवाली मूर्ति
उससे रहित है, लोक-अलोकका प्रकाश करनेवाले केवलज्ञानकर पूर्ण है, जोकि केवलज्ञान
सब पदार्थोंको एक समयमें प्रत्यक्ष जानता है, आगे-पीछे नहीं जानता, वीतरागभाव परमानंदरूप
ते वीतरागचारित्रनी साथे अविनाभूत निश्चयसम्यक्त्वनुं परंपराए साधक छे. वस्तुताए
(वास्तविकपणे) तो सरागसम्यक्त्वथी कहेवामां आवतुं ते सम्यक्त्व व्यवहारसम्यक्त्व ज छे, एवो
भावार्थ छे. १७.
त्यार पछी चार दोहकसूत्रोथी जीवादि छ द्रव्योमांना दरेकना क्रमथी लक्षण कहे छेः —
भावार्थः — हे योगी! तुं शुद्धनिश्चयनयथी आत्माने आवो जाण के ते अमूर्त शुद्ध
आत्माथी विलक्षण स्पर्श-रस-गंध-वर्णवाळी मूर्तिथी रहित होवाथी मूर्ति रहित छे क्रम, करण
दोह-१८ ]परमात्मप्रकाशः [ २३३