तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोधः, अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्वं कथमिति पूर्वपक्षः ।
तत्र परिहारमाह । तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपं निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतु
चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते ।
शुद्धात्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो निर्दोषिपरमात्मनामर्हत्सिद्धानां गुणस्तववस्तुस्तवरूपं
स्तवनादिकं कुर्वन्ति तच्चरितपुराणादिकं च समाकर्णयन्ति तदाराधकपुरुषाणामाचार्योपाध्याय-
साधूनां विषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति तेन कारणेन
शुभरागयोगात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति । या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा
वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकत्वादिति । वस्तुवृत्त्या तु
यही परस्पर विरोध है । यदि उनके वीतरागचारित्र माना जावे, तो गृहस्थपना क्यों कहा ? यह
प्रश्न किया । उसका उत्तर श्रीगुरु देते हैं । उन महान् (बड़े) पुरुषोंके शुद्धात्मा उपादेय है ऐसी
भावनारूप निश्चयसम्यक्त्व तो है, परन्तु चारित्रमोहके उदयसे स्थिरता नहीं है । जब तक
महाव्रतका उदय नहीं है, तब तक असंयमी कहलाते हैं, शुद्धात्माकी अखंड भावनासे रहित
हुए भरत, सगर, राघव, पांडवादिक निर्दोष परमात्मा अरहंत सिद्धोंके गुणस्तवन वस्तुस्तवनरूप
स्तोत्रादि करते हैं, और उनके चारित्र पुराणादिक सुनते हैं, तथा उनकी आज्ञाके आराधक जो
महान पुरुष, आचार्य, उपाध्याय, साधु उनको भक्तिसे आहारदानादि करते हैं, पूजा करते हैं ।
विषय कषायरूप खोटे ध्यानके रोकनेके लिये तथा संसारकी स्थितिके नाश करनेके लिये ऐसी
शुभ क्रिया करते हैं । इसलिये शुभ रागके संबंधसे सम्यग्दृष्टि हैं, और इनके निश्चयसम्यक्त्व
भी कहा जा सकता है, क्योंकि वीतरागचारित्रसे तन्मयी निश्चयसम्यक्त्वके परम्पराय साधकपना
होतुं नथी, तो ए प्रमाणे परस्पर विरोध आवे छे. जो आप कहो के तेमने वीतराग चारित्र
होय छे तो तेमने असंयतपणुं कह्युं छे ते केवी रीते घटी शके?
तेनो परिहार कहे छे – ते महापुरुषोने ‘शुद्ध आत्मा उपादेय छे’ एवी भावनारूप
निश्चयसम्यक्त्व होय छे, पण चारित्रमोहना उदयथी स्थिरता होती नथी, व्रतप्रतिज्ञानो भंग थाय
छे, ते कारणे तेमने असंयत कह्या छे.
शुद्ध आत्मानी भावनाथी च्युत थतां (ज्यारे शुद्ध आत्मानी भावना रहेती नथी त्यारे)
भरतादि अर्हंत सिद्ध एवा निर्दोष परमात्माना गुणस्तवन, वस्तुस्तवनरूप स्तवनादि करे छे अने
तेमनां चरित्र तथा पुराणादिक सांभळे छे. तेमना आराधक पुरुषो एवा आचार्य, उपाध्याय अने
साधुओने विषयकषायना दुर्ध्याननी वंचना अर्थे, संसारस्थितिना छेदन अर्थे दानपूजादिक करे छे
ते कारणे शुभरागना संबंधथी तेओ सरागसम्यग्द्रष्टि छे.
वळी, तेमना (सराग) सम्यक्त्वने निश्चयसम्यक्त्वनुं नाम पण घटी शके छे, कारण के
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७