स्कन्धानां धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि जलवत् द्रव्यकालो गतेः सहकारिकारणं भवतीत्यर्थः । अत्र
निश्चयनयेन निःक्रियसिद्धस्वरूपसमानं निजशुद्धात्मद्रव्यमुपादेयमिति तात्पर्यम् । तथा चोक्तं
निश्चयनयेन निःक्रियजीवलक्षणम् — ‘‘यावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते तावद् द्वैतस्य गोचराः । अद्वये
निष्कले प्राप्ते निःक्रियस्य कुतः क्रिया ।।’’ ।।२३।।
क्रियावंत हैं, और शेष चार द्रव्य अक्रियावाले हैं, चलन – हलन क्रियासे रहित हैं । जीवको दूसरी
गतिमें गमनका कारण कर्म है, वह पुद्गल है और पुद्गलको गमनका कारण काल है । जैसे
धर्मद्रव्यके मौजूद होने पर भी मच्छोंको गमनसहायी जल है, उसी तरह पुद्गलको धर्मद्रव्यके
होने पर भी द्रव्यकाल गमनका सहकारी कारण है । यहाँ निश्चयनयकर गमनादि क्रियासे रहित
निःक्रिय सिद्धस्वरूपके समान निःक्रिय निर्द्वंद्व निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, यह शास्त्रका तात्पर्य
हुआ । इसी प्रकार दूसरे ग्रन्थोंमें भी निश्चयकर हलन-चलनादि क्रिया रहित जीवका लक्षण
कहा है । ‘‘यावत्क्रिया’’ इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जब-तक इस जीवके हलन-
चलनादि क्रिया है, गतिसे गत्यंतरको जाना है, तब तक दूसरे द्रव्यका सम्बन्ध है, जब दूसरेका
सम्बन्ध मिटा, अद्वैत हुआ, तब निकल अर्थात् शरीरसे रहित निःक्रिय है, उसके हलन-चलनादि
क्रिया कहाँसे हो सकती हैं; अर्थात् संसारी जीवके कर्मके सम्बन्धसे गमन है, सिद्धभगवान्
कर्मरहित निःक्रिय हैं, उनके गमनागमन क्रिया कभी नहीं हो सकती ।।२३।।
अर्थः — बाह्य कारण सहित रहेला जीवो अने पुद्गलो सक्रिय छे, बाकीनां द्रव्यो सक्रिय
नथी (निष्क्रिय छे). जीवो पुद्गलकरणवाळा (जेमने सक्रियपणामां पुद्गल बहिरंग साधन होय
एवा) छे अने स्कंधो अर्थात् पुद्गलो तो काळकरणवाळा (जेमने सक्रियपणामां काळ बहिरंग
साधन होय एवा) छे.
जेवी रीते माछलांने धर्मद्रव्य विद्यमान होवा छतां पण जळ गतिनुं सहकारी कारण छे
तेवी रीते पुद्गलस्कंधोने धर्मद्रव्य विद्यमान होवा छतां पण, द्रव्यकाळ गतिनुं सहकारी कारण
छे, एवो अर्थ छे.
अहीं, निश्चयनयथी निष्क्रिय सिद्धस्वरूप समान (निष्क्रिय) निजशुद्धात्मद्रव्य उपादेय छे,
एवुं तात्पर्य छे.
बीजी जग्याए पण निश्चयनयथी निष्क्रिय जीवनुं लक्षण कह्युं छे के ‘‘यावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते
तावद् द्वैतस्य गोचराः । अद्वये निष्कले प्राप्ते निःक्रियस्य कुतः क्रिया ।।’’ अर्थः — ज्यां सुधी आ जीवने
हलनचलनादि क्रिया वर्ते छे त्यां सुधी द्वैत जोवामां आवे छे. अद्वैत अने निष्कल थतां, निष्क्रियने
क्रिया केवी रीते होय? २३.
अधिकार-२ः दोहा-२३ ]परमात्मप्रकाशः [ २४५