धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि जलवत्, घटोत्पत्तौ कुम्भकारबहिरङ्गनिमित्तेऽपि चक्रचीवरादिवत्,
जीवानां धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि कर्मनोकर्मपुद्गला गतेः सहकारिकारणं, पुद्गलानां तु कालद्रव्यं
गतेः सहकारिकारणम् । कुत्र भणितमास्ते इति चेत् । पञ्चास्तिकायप्राभृते-
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः सक्रियनिःक्रियव्याख्यानकाले भणितमस्ति — ‘‘जीवा पुग्गलकाया सह
सक्किरिया हवंति ण य सेसा । पुग्गलकरणा जीवा खंदा खलु कालकरणेहिं ।।’’ पुद्गल-
है । कोई प्रश्न करे कि गतिका सहकारी धर्म है, कालको क्यों कहा ? उसका समाधान यह
है कि सहकारीकारण बहुत होते हैं, और उपादानकारण एक ही होता है, दूसरा द्रव्य नहीं होता,
निज द्रव्य ही निज (अपनी) गुण – पर्यायोंका मूलकारण है, और निमित्तकारण बहिरंगकारण
तो बहुत होते हैं, इसमें कुछ दोष नहीं है । धर्मद्रव्य तो सबहीका गतिसहायी है, परंतु
मछलियोंको गतिसहायी जल है, तथा घटकी उत्पत्तिमें बहिरंगनिमित्त कुम्हार है, तो भी दंड,
चक्र, चीवरादिक ये भी अवश्य कारण हैं, इनके बिना घट नहीं होता, और जीवोंके धर्मद्रव्य
गतिका सहायी विद्यमान है, तो भी कर्म-नोकर्म पुद्गल सहकारीकारण हैं, इसी तरह पुद्गलको
कालद्रव्य गति सहकारीकारण जानना । यहाँ कोई प्रश्न करे कि धर्मद्रव्य तो गतिका सहायी
सब जगह कहा है, और कालद्रव्य वर्तनाका सहायी है, गति सहायी किस जगह कहा है ?
उसका समाधान श्रीपंचास्तिकायमें कुंदकुंदाचार्यने क्रियावंत और अक्रियावंतके व्याख्यानमें
कहा है । ‘‘जीवा पुग्गल’’ इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जीव और पुद्गल ये दोनों
(अत्रे कोई प्रश्न करे के गमनमां धर्मद्रव्य सहकारी कारण होय छे अने आप काळने
शा माटे सहकारी कारण कहो छो? तेनुं समाधान ए छे के) सहकारी कारणो अनेक होय छे.
मत्स्यने गमनमां धर्मद्रव्य विद्यमान होवा छतां पण, जळ सहकारी निमित्त छे, घडानी उत्पत्तिमां
कुंभारनुं बहिरंग निमित्त होवा छतां पण, चाकडो, चीवरादि सहकारी निमित्त छे. जीवोने
गमनमां धर्मद्रव्य विद्यमान होवा छतां पण कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलो सहकारी कारण छे अने
पुद्गलोने गतिनुं काळद्रव्य सहकारी कारण छे.
अहीं, कोई प्रश्न करे के (धर्मद्रव्यने तो गतिनुं निमित्त बधी जग्याए कह्युं छे अने
काळद्रव्यने वर्तनानुं कारण कह्युं छे) काळद्रव्यने गतिनुं निमित्त कई जग्याए कह्युं छे?
तेनुं समाधाान : — पंचास्तिकाय प्राभृतमां श्रीकुंदकुंदाचार्यदेवे सक्रिय-निष्क्रिय व्याख्यानकाळे
(गाथा-९८मां) कह्युं छे केः —
‘‘जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति णय सेसा ।
पुग्गलकरणा जीवा खंदा खलु कालकारणेहिं ।।
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२३