Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 25 (Adhikar 2).

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गाथा२५
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [अत्र जगति ] इस संसारमें [यानि द्रव्याणि
कथितानि ] जो द्रव्य कहे गये हैं, [तानि ] वे सब [लोकाकाशं धृत्वा ] लोकाकाशमें स्थित
हैं, लोकाकाश तो आधार है, और ये सब आधेय हैं, [एकत्वे मिलितानि ] ये द्रव्य एक क्षेत्र
में मिले हुए रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही हैं, तो भी [स्वगुणेषु ] निश्चयनयकर अपने अपने गुणों
में ही [निवसंति ] निवास करते हैं, परद्रव्यसे मिलते नहीं हैं
भावार्थ :यद्यपि उपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर आधाराधेयभावसे एक
क्षेत्रावगाहकर तिष्ठ रहे हैं, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे
परद्रव्यसे मिलनेरूप संकर
दोषसे रहित हैं, और अपने अपने सामान्य गुण तथा विशेष गुणोंको
(‘सगुणहिं’ त्रीजी विभक्तिना अंतवाळुं करणसूचक आ पद ‘पोताना गुणोमां’ एम
अधिकरणना (सातमी विभक्तिना) अर्थवाळुं केवी रीते थयुं? पूर्वे कह्युं ज छे के प्राकृत भाषामां
कोई वार कारकव्यभिचार अने लिंगव्यभिचार थाय छे.)
भावार्थजोके पूर्वोक्त छए द्रव्यो उपचरित असद्भूत-व्यवहारनयथी आधार
-आधेय भावथी एकक्षेत्रावगाहे रहे छे तोपण शुद्धपारिणामिक परम भावग्राहक
शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी संकर व्यतिकर दोषोना परिहार वडे पोतपोताना सामान्य विशेष शुद्ध गुणोने
छोडतां नथी.
१५१) लोयागासु धरेवि जिय कहियइँ दव्वइँ जाइँ
एक्कहिँ मिलियइँ इत्थु जगि सगुणहिँ णिवसहिँ ताइँ ।।२५।।
लोकाकाशं धृत्वा जीव कथितानि द्रव्याणि यानि
एकत्वे मिलितानि अत्र जगति स्वगुणेषु निवसन्ति तानि ।।२५।।
लोयागासु इत्यादि लोयागासु लोकाकाशं कर्मतापन्नं धरेवि धृत्वा मर्यादीकृत्य जिय
हे जीव अथवा लोकाकाशमाधारीकृत्वा ठियाइं आधेयरूपेण स्थितानि कानि स्थितानि
कहियइं दव्वइं जाइं कथितानि जीवादिद्रव्याणि यानि पुनः कथंभूतानि एक्कहिं मिलियइं
एकत्वे मिलितानि इत्थु जगि अत्र जगति सगुणहिं णिवसहिं निश्चयनयेन स्वकीयगुणेषु
निवसन्ति ‘सगुणहिं’ तृतीयान्तं करणपदं स्वगुणेष्वधिकरणं कथं जातमिति ननु कथितं पूर्व
१ पाठान्तरःकृत्य = कृत्वा
२४८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२५