नहीं छोड़ते हैं । यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया है कि हे भगवन्, परमागममें
लोकाकाश तो असंख्यातप्रदेशी कहा है, उस असंख्यात प्रदेशी लोकमें अनंत जीव किस तरह
समा सकते हैं ? क्योंकि एक एक जीवके असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं, और एक एक
जीवमें अनंतानंत पुद्गलपरमाणु कर्म नोकर्मरूपसे लग रही है, और उसके सिवाय अनन्तगुणे
अन्य पुद्गल रहते हैं, सो ये द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोकमें कैसे समा गये ? इसका समाधान
श्री गुरु करते हैं । आकाशमें अवकाशदान (जगह देनेकी) शक्ति है, उसके सम्बन्धसे समा
जाते हैं । जैसे एक गूढ़ नागरस गुटिकामें शत, सहस्र, लक्ष, सुवर्ण संख्या आ जाती है, अथवा
एक दीपकके प्रकाशमें बहुत दीपकोंका प्रकाश जगह पाता है, अथवा जैसे एक राखके घड़ेमें
जलका घड़ा अच्छी तरह अवकाश पाता है, भस्ममें जल शोषित हो जाता है, अथवा जैसे
आ कथन सांभळीने प्रभाकरभट्ट पूछे छे के हे भगवान! परमागममां लोकने असंख्यात
प्रदेशी कह्यो छे, ते असंख्यात प्रदेशी लोकमां प्रत्येक प्रत्येक असंख्यातप्रदेशी एवा अनंत जीवद्रव्यो
अने ते एक एक जीवद्रव्यमां कर्म-नोकर्मरूपे अनंत पुद्गलपरमाणुद्रव्यो रहे छे. ते अनंत
पुद्गलपरमाणुद्रव्यथी पण अनंतगुणा बाकीना पुद्गल परमाणुद्रव्यो रहे छे, तो ते सर्व द्रव्यो
असंख्यप्रदेशवाळा लोकमां केवी रीते अवकाश पामे (रही शके)? एवो पूर्वपक्ष छे.
भगवान श्री गुरु तेनो परिहार करे छे, अवगाहनशक्तिने लीधे (आकाशमां अवकाश
देवानी शक्ति छे तेना कारणे पूर्वोक्त छ द्रव्यो एकक्षेत्रावगाहे रहे छे.) ते आ प्रमाणेः —
(१) जेवी रीते एक गूढ नागरसगुटिकामां सो हजार लाख जेटली संख्यानुं सुवर्ण रहे
छे, (२) अथवा जेवी रीते एक दीवाना प्रकाशमां घणा दीवानो प्रकाश अवकाश पामे छे, अथवा
प्राकृते कारकव्यभिचारो लिङ्गव्यभिचारश्च क्कचिद्भवतीति । कानि निवसन्ति ताइं पूर्वोक्तानि
जीवादिषड्द्रव्याणीति । तद्यथा । यद्यप्युपचरितासद्भूतव्यवहारेणाधाराधेयभावेनैकक्षेत्रावगाहेन
तिष्ठन्ति तथापि शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन संकरव्यतिकरपरिहारेण
स्वकीयस्वकीयसामान्यविशेषशुद्धगुणान्न त्यजन्तीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । हे भगवन्
लोकस्तावदसंख्यातप्रदेशः परमागमे भणितः तिष्ठति तत्रासंख्यातप्रदेशलोके प्रत्येकं प्रत्येकम-
संख्येयप्रदेशान्यनन्तजीवद्रव्याणि, तत्र चैकैके जीवद्रव्ये कर्मनोकर्मरूपेणानन्तानि पुद्गलपरमाणु-
द्रव्याणि च तिष्ठन्ति तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि शेषपुद्गलद्रव्याणि तिष्ठन्ति तानि सर्वाण्यसंख्येय-
प्रदेशलोके कथमवकाशं लभन्ते इति पूर्वपक्षः । भगवान् परिहारमाह । अवगाहनशक्ति योगादिति ।
तथाहि । यथैकस्मिन् गूढनागरसगद्याणके शतसहस्रलक्षसुवर्णसंख्याप्रमितान्यवकाशं लभन्ते,
अथवा यथैकस्मिन् प्रदीपप्रकाशे बहवोऽपि प्रदीपप्रकाशा अवकाशं लभन्ते, अथवा यथैकस्मिन्
भस्मघटे जलघटः सम्यगवकाशं लभन्ते, अथवा यथैकस्मिन् उष्ट्रीक्षीरघटे मधुघटः सम्यगवकाशं
अधिकार-२ः दोहा-२५ ]परमात्मप्रकाशः [ २४९