एक ऊँटनीके दूधके घड़ेमें शहदका घड़ा समा जाता है, अथवा एक भूमिघरमें ढोल, घण्टा
आदि बहुत बाजोंका शब्द अच्छी तरह समा जाता है, उसी तरह एक लोकाकाशमें विशिष्ट
अवगाहनशक्तिके योगसे अनंत जीव और अनन्तानन्त पुद्गल अवकाश पाते हैं, इसमें विरोध
नहीं है, और जीवोंमें परस्पर अवगाहनशक्ति है । ऐसा ही कथन परमागममें कहा है —
‘‘एगणिगोद’’ इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि एक निगोदिया जीवके शरीरमें जीवद्रव्यके
प्रमाणसे दिखलाये गये जितने सिद्ध हैं, उन सिद्धोंसे अनंत गुणे जीव एक निगोदियाके शरीरमें
हैं, और निगोदियाका शरीर अंगुलके असंख्यातवें भाग है, सो ऐसे सूक्ष्म शरीरमें अनंत जीव
समा जाते हैं, तो लोकाकाशमें समा जानेमें क्या अचंभा है ? अनंतानंत पुद्गल लोकाकाशमें
समा रहे हैं, उसकी ‘‘ओगाढ’’ इत्यादि गाथा है । उसका अर्थ यह है कि सब प्रकार सब
जगह यह लोक पुद्गल कायोंकर अवगाढ़गाढ़ भरा है, ये पुद्गल काय अनंत हैं; अनेक
प्रकारके भेदको धरते हैं, कोई सूक्ष्म हैं कोई बादर हैं । तात्पर्य यह है कि यद्यपि सब द्रव्य
(३) जेवी रीते एक राखना घडामां पाणीनो घडो सारी रीते समाई जाय छे (जेवी रीते घडा
जेटली राखमां घडा जेटलुं पाणी पूरतुं शोषाई जाय छे) अथवा (४) जेवी रीते एक ऊंटणीना
दूधना घडामां मधनो घडो समाई जाय छे अथवा (५) जेवी रीते एक भूमिघरमां (भोंयरामां)
ढोल, जयजयकार अने घंट वगेरेना अनेक शब्दो सारी रीते अवकाश पामे छे तेवी रीते एक
ज लोकमां विशिष्ट अवगाहनशक्तिने लीधे पूर्वोक्त अनंत संख्यावाळा जीवो अने अनंतानंत
पुद्गलो अवकाश पामे छे, एमां कोई विरोध नथी. परमागममां (श्री गोम्मटसार जीवकांड गा.
१९५ मां) जीवोनी अवगाहनशक्तिनुं स्वरूप पण कह्युं छे के ‘‘एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो
दिट्ठा सिद्धे हिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ।।’’ (अर्थः — अतीतकाळमां थयेला सर्व सिद्धोथी
द्रव्यप्रमाणथी अनंतगुणा जीवो एक निगोदना शरीरमां जोवामां आव्या छे. वळी पंचास्तिकाय
गा. ६४ मां) पुद्गलोनी अवगाहनशक्तिनुं स्वरूप पण कह्युं छे के – ‘‘ओगाढ गाढणिचिदो पुग्गलकाएहिं
सव्वदो लोगो । सुहुमेहिं बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविहेहिं ।।’’ (अर्थः — लोक सर्वतः विविध प्रकारना,
अनंतानंत सूक्ष्म तेम ज बादर पुद्गलकायो (पुद्गलस्कंधो) वडे [विशिष्ट रीते] अवगाहाईने गाढ
लभते । अथवा यथैकस्मिन् भूमिगृहे बहवोऽपि पटहजयघण्टादिशब्दाः सम्यगवकाशं लभन्ते,
तथैकस्मिन् लोके विशिष्टावगाहनशक्ति योगात् पूर्वोक्तानन्तसंख्या जीवपुद्गला अवकाशं लभन्ते
नास्ति विरोधः इति । तथा चोक्तं जीवानामवगाहनशक्ति स्वरूपं परमागमे — ‘‘एगणिगोदसरीरे
जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धे हिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ।।’’ पुनस्तथोक्तं
पुद्गलानामवगाहनशक्ति स्वरूपम् — ‘‘ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकाएहिं सव्वदो लोगो । सुहुमेहिं
बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविहेहिं ।।’’ । अयमत्र भावार्थः । यद्यप्येकावगाहेन तिष्ठन्ति तथापि
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२५