Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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२६४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३१
यः भक्त : रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं एतत्
आत्मानं मुक्त्वा गुणनिलयं तस्यापि अन्यत् न ध्येयम् ।।३१।।
जो इत्यादि जो यः भत्तउ भक्त : कस्य रणय-त्तयहँ रत्नत्रयसंयुक्त स्य तसु तस्य
जीवस्य मुणि मन्यस्व जानीहि हे प्रभाकरभट्ट किं जानीहि लक्खणु लक्षणं एउ इदमग्रे
वक्ष्यमाणम् इदं किम् अप्पा मिल्लिवि आत्मानं मुक्त्वा किं विशिष्टम् गुण-णिलउ
गुणनिलयं गुणगृहं तासु वि तस्यैव जीवस्य अण्णु ण झेउ निश्चयेनान्यद्बहिर्द्रव्यं ध्येयं न
भवतीति
तथाहि व्यवहारेण वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्त-
तत्त्वपदार्थविषये सम्यक्श्रद्धानज्ञानाहिंसादिव्रतशीलपरिपालनरूपस्य भेदरत्नत्रयस्य निश्चयेन
वीतरागसदानन्दैकरूपसुखसुधारसास्वादपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य
भावार्थव्यवहारनयथी वीतराग सर्वज्ञप्रणीत शुद्धात्मतत्त्वादि, छ द्रव्य पंचास्तिकाय,
सात तत्त्व, नव पदार्थनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, अने अहिंसादि व्रत, शीलना परिपालनरूप
भेदरत्नत्रयनो अने निश्चयनयथी वीतराग सदा-आनंद जेनुं एक रूप छे एवा सुखसुधारसना
आस्वादथी परिणत निजशुद्धात्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप
अभेदरत्नत्रयनो जे भक्त छे तेनुं आ लक्षण जाणो. आ क्युं? जोके व्यवहारनयथी सविकल्प
अवस्थामां चित्तने स्थिर करवा माटे देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूतिनुं विशेष कारण, परंपराए
शुद्ध आत्मानी प्राप्तिना हेतुभूत एवां, पंचपरमेष्ठीना रूपनुं स्तवन, वस्तुस्तवन, गुणस्तवनादिक
गाथा३१
अन्वयार्थ :[यः ] जो जीव [रत्नत्रयस्य भक्तः ] रत्नत्रयका भक्त है [तस्य ]
उसका [इदं लक्षणं ] यह लक्षण [मन्यस्व ] जानना, हे प्रभाकरभट्ट; रत्नत्रय धारकके ये लक्षण
हैं
[गुणनिलयं ] गुणोंके समूह [आत्मानं मुक्त्वा ] आत्माको छोड़कर [तस्यापि अन्यत् ]
आत्मासे अन्य बाह्य द्रव्यको [न ध्येयम् ] न ध्यावे, निश्चयनयसे एक आत्मा ही ध्यावने योग्य
है, अन्य नहीं
भावार्थ :व्यवहारनयकर वीतराग सर्वज्ञके कहे हुए शुद्धात्मतत्त्व आदि छह द्रव्य,
सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंच अस्तिकायका श्रद्धान जानने योग्य है, और हिंसादि, पाप, त्याग
करने योग्य हैं, व्रत, शीलादि पालने योग्य हैं, ये लक्षण व्यवहाररत्नत्रयके हैं, सो व्यवहारका
नाम भेद हैं, वह भेदरत्नत्रय आराधने योग्य है, उसके प्रभावसे निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति है
वीतराग सदा आनंदरूप जो निज शुद्धात्मा आत्मीक सुखरूप सुधारसके आस्वाद कर परिणत
हुआ उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेदरत्नत्रय है, उसका जो भक्त (आराधक)