अधिकार-२ः दोहा-३८ ]परमात्मप्रकाशः [ २७९
रागादिरहितमनसि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मसंवित्तिं न त्यजति स पुरुष एवाभेदनयेन
द्रव्यभावरूपपुण्यपापसंवरस्य हेतुः कारणं भवतीति ।।३७।।
अथ यावन्तं कालं रागादिरहितपरिणामेन स्वशुद्धात्मस्वरूपे तन्मयो भूत्वा तिष्ठति तावन्तं
कालं संवरनिर्जरे करोतीति प्रतिपादयति —
१६४) अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प – सरूवि णिलीणु ।
संवर – णिज्जर जाणि तुहुं सयल – वियप्प – विहीणु ।।३८।।
तिष्ठति यावन्तं कालं मुनिः आत्मस्वरूपे निलीनः ।
संवरनिर्जरां जानीहि त्वं सकलविकल्पविहीनम् ।।३८।।
– रागद्वेषमोहरहित परिणामने-करे छे अर्थात् सहज शुद्ध ज्ञानानंद ज जेनुं एक रूप छे एवा,
रागद्वेषमोहरहित परिणाममां परिणमे छे ते कारणे ते मुनि पुण्य अने पाप ए बन्नेना संवरनो
हेतु थाय छे.
अहीं, आ तात्पर्य छे के कर्मोदय वशे सुख-दुःख उत्पन्न थवा छतां पण, जे कोई
रागादिथी रहित एवा मनमां विशुद्धज्ञान, विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा निज शुद्ध
आत्माना संवेदनने छोडतो नथी ते पुरुष ज अभेदनयथी द्रव्यभावरूप पुण्य-पापना संवरनुं
कारण थाय छे. ३७.
हवे, मुनि जेटलो समय राग-द्वेष रहित परिणाम वडे स्वशुद्धात्म स्वरूपमां तन्मय थईने
रहे छे तेटलो ज काळ संवरनिर्जरा करे छे, एम कहे छेः —
मनमें शुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूप अपने निज शुद्ध स्वरूपको नहीं छोड़ता है, वही पुरुष अभेदनयकर
द्रव्य भावरूप पुण्य-पापके संवरका कारण है ।।३७।।
आगे जिस समय जितने काल तक रागादि रहित परिणामोंकर निज शुद्धात्मस्वरूपमें
तन्मय हुआ ठहरता है, तब तक संवर और निर्जराको करता है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – ३८
अन्वयार्थ : — [मुनिः ] मुनिराज [यावंतं कालं ] जबतक [आत्मस्वरूपे निलीनः ]
आत्मस्वरूपमें लीन हुआ [तिष्ठति ] रहता है, अर्थात् वीतराग नित्यानंद परम समरसीभावकर
परिणमता हुआ अपने स्वभावमें तल्लीन होता है, उस समय हे प्रभाकरभट्ट; [त्वं ] तू
[सकलविकल्पविहीनम् ] समस्त विकल्प समूहोंसे रहित अर्थात् ख्याति (अपनी बड़ाई) पूजा