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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३८
अत्थ(च्छ)इ इत्यादि । अत्थ(च्छ)इ तिष्ठति । किं कृत्वा तिष्ठति । जित्तिउ कालु यावन्तं
कालं प्राप्य । क्व तिष्ठति । अप्प-सरूवि निजशुद्धात्मस्वरूपे । कथंभूतः सन् णिलीणु निश्चयनयेन
लीनो द्रवीभूतो वीतरागनित्यानन्दैकपरमसमरसीभावेन परिणतः हे प्रभाकरभट्ट
इत्थंभूतपरिणामपरिणतं तपोधनमेवाभेदेन संवर-णिज्जर जाणि तुहुँ संवरनिर्जरास्वरूपं जानीहि
त्वम् । पुनरपि कथंभूतम् । सयल-वियप्प-विहीणु सकलविकल्पहीनं ख्यातिपूजालाभप्रभृति-
विकल्पजालावलीरहितमिति । अत्र विशेषव्याख्यानं यदेव पूर्वसूत्रद्वयभणितं तदेव ज्ञातव्यम् ।
कस्मात् । तस्यैव निर्जरासंवरव्याख्यानस्योपसंहारोऽयमित्यभिप्रायः ।।३८।। एवं मोक्षमोक्षमार्गमोक्ष-
फलादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारोक्तसूत्राष्टकेनाभेदरत्नत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन स्थलं समाप्तम् ।
अत ऊर्ध्वं चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं परमोपशमभावमुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति ।
तथाहि —
१६५) कम्मु पुरक्किउ सो खवइ अहिणव पेसु ण देइ ।
संगु मुएविणु जो सयलु उवसम-भाउ करेइ ।।३९।।
भावार्थः — मुनि जेटलो काळ निज शुद्धात्मस्वरूपमां निश्चयथी लीन थईने द्रवीभूत
थईने एक (केवळ) वीतराग नित्यानंदरूप परमसमरसीभावे परिणमेलो रहे छे, तेटला काळसुधी
तुं आवा परिणामरूपे परिणमेला, संकल्प-विकल्पथी रहित ख्यातिपूजालाभआदिना विकल्पनी
जाळावलीथी रहित-तपोधनने संवरनिर्जरास्वरूप जाण.
जे विशेष व्याख्यान पूर्वना बे गाथासूत्रोमां कह्युं छे ते ज अत्रे जाणवुं, कारण के ते
ज संवर अने निर्जराना व्याख्याननो उपसंहार छे, एवो अभिप्राय छे. ३८.
आ प्रमाणे मोक्ष, मोक्षमार्ग अने मोक्षफळआदिना प्रतिपादक बीजा महाधिकारमां कहेल
आठ सूत्रोथी अभेदरत्नत्रयना व्याख्याननी मुख्यताथी (अंतर) स्थळ समाप्त थयुं.
(अपनी प्रतिष्ठा) लाभको आदि देकर विकल्पोंसे रहित उस मुनिको [संवरनिर्जरा ] संवर
निर्जरा स्वरूप [जानीहि ] जान । यहाँ पर भावार्थरूप विशेष व्याख्यान जो कि पहले दो सूत्रोंमें
कहा था, वही जानो । इसप्रकार संवर निर्जराका व्याख्यान संक्षेपरूपसे कहा गया है ।।३८।।
इस तरह मोक्ष, मोक्ष – मार्ग और मोक्ष – फलका निरूपण करनेवाले दूसरे महाधिकारमें
आठ दोहा – सूत्रोंसे अभेदरत्नत्रयके व्याख्यानकी मुख्यतासे अंतरस्थल पूरा हुआ ।
आगे चौदह दोहोंमें परम उपशमभावकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं —