Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 45 (Adhikar 2).

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अधिकार-२ः दोहा-४५ ]परमात्मप्रकाशः [ २९१
कारणेन बन्धुघाती लोकव्यवहारभाषया निन्दापि भवतीति तथा चोक्त म् लोकव्यवहारे
ज्ञानिनां लोकः पिशाचो भवति लोकस्याज्ञानिजनस्य ज्ञानि पिशाच इति ।।४४।।
अथ
१७१) अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो समभाउ करेइ
सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहँ णिलीणु हवेइ ।।४५।।
अन्यः अपि दोषो भवति तस्य यः समभावं करोति
शत्रुमपि मुक्त्वा आत्मीयं परस्य निलीनः भवति ।।४५।।
अण्णु वि इत्यादि अण्णु वि न केवलं पूर्वोक्त अन्योऽपि दोसु दोषः हवेइ
भवति तसु तस्य तपोधनस्य यः किं करोति जो सम-भाउ करेइ यः कर्ता समभावं
वळी, कह्युं पण छे के‘‘लोकव्यवहारे ज्ञानिनां लोकः पिशाचः भवति लोकस्याज्ञानिजनस्य
ज्ञानी पिशाच इति ।।’’ (अर्थलोकव्यवहारमां ज्ञानीओने जगतना लोको पिशाच (पागल)
लागे छे, ज्यारे लोकना मूढ अज्ञानी जनोने ज्ञानी पिशाच लागे छे.) ४४.
हवे, समताना धारक मुनिनी फरी निंदा-स्तुति करे छेः
भावार्थजे रागादिरहित समभावस्वरूप निजपरमात्मानी भावना करे छे ते पुरुष
‘शत्रु’ शब्दथी वाच्य एवा ज्ञानावरणादि कर्मरूप निश्चयशत्रुने छोडे छे अने ‘पर’ शब्दथी वाच्य
कर देता है, सो मूढ़ लोग निंदा करते हैं यह दोष नहीं है गुण ही है मूढ़ लोगोंके जाननेमें
ज्ञानीजन बावले हैं, और ज्ञानियोंके जाननेमें जगतके जन बावले हैं क्योंकि ज्ञानी जगतसे
विमुख हैं, तथा जगत् ज्ञानियोंसे विमुख है ।।४४।।
आगे समभावके धारक मुनिकी फि र भी निंदास्तुति करते हैं
गाथा४५
अन्वयार्थ :[यः ] जो [समभावं ] समभावको [करोति ] करता है, [तस्य ] उस
तपोधनके [अन्यः अपि दोषः ] दूसरा भी दोष [भवति ] है क्योंकि [परस्य निलीनः ] परके
आधीन [भवति ] होता है, और [आत्मीयं अपि ] अपने आधीन भी [शत्रुम् ] शत्रुको [मुंचति ]
छोड़ देता है
भावार्थ :जो तपोधन धन धान्यादिका राग त्यागकर परम शांतभावको आदरता है,
राजा-रंकको समान जानता है, उसके दोष कभी नहीं हो सकता सदा स्तुतिके योग्य है, तो