अधिकार-२ः दोहा-४६ ]परमात्मप्रकाशः [ २९३
अण्णु वि इत्यादि । अण्णु वि न केवलं पूर्वोक्त ऽन्योऽपि दोसु दोषः हवेइ भवति ।
तसु तस्य तपस्विनः । यः किं करोति । जो सम-भाउ करेइ यः कर्ता समभावं करोति ।
पुनरपि किं करोति । वियलु हवेविणु विकलः कलरहितः शरीररहितो भूत्वा इक्कलउ एकाकी
पश्चात् उप्परि जगहं चडेइ उपरितनभागे जगतो लोकस्यारोहणं करोतीति ।
अयमत्राभिप्रायः । यः तपस्वी रागादिविकल्परहितस्य परमोपशमरूपस्य निजशुद्धात्मनो भावनां
करोति स सकलशब्दवाच्यं शरीरं मुक्त्वा लोकस्योपरि तिष्ठति तेन कारणेन स्तुतिं लभते
अथवा यथा कोऽपि लोकमध्ये चित्तविकलो भूतः सन् निन्दां लभते तथा शब्दच्छलेन
तपोधनोऽपीति ।।४६।।
अथ स्थलसंख्याबाह्यं प्रक्षेपकं कथयति —
१७३) जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिँ जग्गेइ ।
जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ ।४६✽१।
हवे, समभावने धारक मुनिनी फरी पण निंदा-स्तुति करे छेः —
भावार्थः — जे तपस्वी रागादि विकल्प रहित परम-उपशमरूप निजशुद्धात्मानी
भावना करे छे ते ‘कळ’ शब्दथी वाच्य एवा शरीरने छोडीने लोकाग्रे स्थित थाय छे ते कारणे
स्तुति पामे छे अथवा जेवी रीते कोई लोकमां धनथी रहित थयो थको निंदाने पामे छे, तेवी
रीते तपोधन पण शब्दना छळथी निंदा पामे छे. ४६.
हवे, स्थळसंख्याथी बाह्य क्षेपक दोहानुं कथन करे छेः —
है, [तस्य ] उसके [अन्यः अपि ] दूसरा भी [दोषः ] दोष [भवति ] होता है, जोकि [विकलः
भूत्वा ] शरीर रहित होके अथवा बुद्धि धन वगैरः से भ्रष्ट होकर [एकाकी ] अकेला [जगतः
उपरि ] लोकके शिखर पर अथवा सबके ऊ पर [आरोहति ] चढ़ता है ।
भावार्थ : — जो तपस्वी रागादि रहित परम उपशमभावरूप निज शुद्धात्माकी भावना
करता है, उसकी शब्दके छलसे तो निंदा है, कि विकल अर्थात् बुद्धि वगैरह से भ्रष्ट होकर
लोक अर्थात् लोकोंके ऊ पर चढ़ता है । यह लोक – निंदा हुई । लेकिन असलमें ऐसा अर्थ है,
कि विकल अर्थात् शरीर से रहित होकर तीन लोकके शिखर (मोक्ष) पर विराजमान हो जाता
है । यह स्तुति ही है । क्योंकि जो अनंत सिद्ध हुए, तथा होंगे, वे शरीर रहित निराकार होके
जगत् के शिखर पर विराजे हैं ।।४६।।
आगे स्थलसंख्याके सिवाय क्षेपक दोहा कहते हैं —