Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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२९६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-४७
णाणि इत्यादि णाणि परमात्मरागाद्यास्रवयोर्भेदज्ञानी मुएप्पिणु मुक्त्वा कम् भाउ
भावम् कथंभूतं भावम् समु उपशमं पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषरहितं वीतराग-
परमाह्लादसहितम् कित्थु वि जाइ ण राउ तं पूर्वोक्तं समभावं मुक्त्वा क्वापि बहिर्विषये
रागं न याति न गच्छति कस्मादिति चेत् जेण लहेसइ येन कारणेन लभिष्यति
भाविकाले प्राप्स्यति कम् णाणमउ ज्ञानमयं केवलज्ञाननिर्वृत्तं केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणं
तेण जि तेनैव सम्भावेन अप्प-सहाउ निर्दोषिपरमात्मस्वभावमिति इदमत्र तात्पर्यम् ज्ञानी
पुरुषः शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं समभावं विहाय बहिर्भावे रागं न गच्छति येन कारणेन
समभावेन विना शुद्धात्मलाभो न भवतीति
।।४७।।
अथ ज्ञानी कमप्यन्यं न भणति न प्रेरयति न स्तौति न निन्दतीति प्रतिपादयति
भावार्थपरमात्मा अने रागादि आश्रवनो भेदज्ञानी पंचेन्द्रियविषयनी अभिलाषा
रहित अने वीतराग परम आह्लाद सहित उपशमभावने छोडीने-ते पूर्वोक्त समभावने छोडीने
कोई पण बाह्य विषयमां रागने पामतो नथीरागने करतो नथी, जेथी ते समभावथी ज
ज्ञानमयजे केवळज्ञानमां अनंतगुणो अन्तर्भूत छेएवा केवळज्ञानथी रचायेल-निर्दोष
परमात्म-स्वभावने भविष्यमां पामशे.
ज्ञानी पुरुष शुद्धात्मानी अनुभूतिस्वरूप समभावने छोडीने बहिर्भावमां रागी थतो नथी,
कारण के समभाव विना शुद्धात्मानी प्राप्ति थती नथी. ४७.
हवे, ज्ञानी पुरुष अन्य पासेथी कंईपण भणतो नथी अने अन्यने प्रेरतो नथी (भणावतो
नथी) कोईनी स्तुति के निंदा करतो नथी, एम कहे छेः
[येन ] इसी कारण [ज्ञानमयं ] ज्ञानमयी निर्वाणपद [प्राप्स्यति ] पावेगा, [तेनैव ] और उसी
समभावसे [आत्मस्वभावम् ] केवलज्ञान पूर्ण आत्मस्वभावको आगे पावेगा
भावार्थ :जो अनंत सिद्ध हुए वे समभावके प्रसाद से हुए हैं, और जो होवेंगे, इसी
भाव से होंगे इसलिये ज्ञानी समभावके सिवाय अन्य भावों में राग नहीं करते इस समभावके
बिना अन्य उपायसे शुद्धात्माका लाभ नहीं है एक समभाव ही भवसागरसे पार होनेका उपाय
है समभाव उसे कहते हैं, जो पचेन्द्रिके विषयोंकी अभिलाषासे रहित वीतराग परमानंदसहित
निर्विकल्प निजभाव हो ।।४७।।
आगे कहते हैं, कि ज्ञानीजन समभावका स्वरूप जानता हुआ न किसीसे पढ़ता है, न
किसीको पढ़ाता है, न किसीको प्रेरणा करता है, न किसीकी स्तुति करता है, न किसीकी निंदा
करता है
१ पाठान्तरःलभिष्यति = लप्स्यते