अधिकार-२ः दोहा-४९ ]परमात्मप्रकाशः [ २९९
रागमपि । येन तपोधनेन किं कृतम् । गंथहं जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ
ग्रन्थात्सकाशाद्येन विज्ञातो भिन्न आत्मस्वभाव इति । तद्यथा । मिथ्यात्वं, स्त्र्यादिवेदकांक्षारूप-
वेदत्रयं हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सारूपं नोकषायषट्कं, क्रोधमानमायालोभरूपं कषायचतुष्टयं
चेति चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहाः, क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यभाण्डरूपा बाह्यपरि-
ग्रहाः इत्थंभूतान् बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहान् जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः
कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा शुद्धात्मोपलम्भलक्षणे वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च यो
बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहाद्भिन्नमात्मानं जानाति स परिग्रहस्योपरि रागद्वेषौ न करोति । अत्रेदं
व्याख्यानं एवं गुणविशिष्टनिर्ग्रन्थस्यैव शोभते न च सपरिग्रहस्येति तात्पर्यार्थः ।।४९।।
अथ —
१७७) विसयहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ ।
विसयहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ।।५०।।
अभ्यंतर परिग्रहो अने क्षेत्र, वास्तु, चांदी, सुवर्ण, धन, धान्य, दास, दासी, कुप्य, भांडरूप
दश बाह्य परिग्रहो — ए प्रमाणे चोवीस बाह्य अभ्यंतर परिग्रहोने त्रण लोक अने त्रण काळमां
मन, वचन, कायाथी, करवुं, कराववुं, अनुमोदनथी छोडीने अने शुद्धात्मानी प्राप्ति जेनुं लक्षण
छे एवी वीतराग निर्विकल्प समाधिमां स्थित थईने जे बाह्य अभ्यंतर परिग्रहथी भिन्न
आत्माने जाणे छे, ते परिग्रह उपर राग-द्वेष करतो नथी.
अहीं, आवा गुणविशिष्ट निर्ग्रंथने ज (निर्ग्रंथ मुनिने ज) आ कथन शोभे छे पण
परिग्रहधारीने शोभतुं नथी, एवो तात्पर्यार्थ छे. ४९.
वळी (हवे, परम मुनि विषयो उपर राग-द्वेष करतो नथी, एम कहे छे)ः —
सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य, भांडरूप दस बाह्य परिग्रह — इसप्रकार चौबीस
तरहके बाह्य अभ्यंतर परिग्रहोंको तीन जगतमें, तीनों कालोंमें, मन, वचन, काय, कृत
कारित अनुमोदनासे छोड़ और शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिमें ठहरकर
परवस्तुसे अपनेको भिन्न जानता है, वो ही परिग्रहके ऊ पर राग-द्वेष नहीं करता है । यहाँ
पर ऐसा व्याख्यान निर्ग्रंथ मुनिको ही शोभा देता है, परिग्रहधारीको नहीं शोभा देता है,
ऐसा तात्पर्य जानना ।।४९।।
आगे विषयोंके ऊ पर वीतरागता दिखलाते हैं —