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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-४९
अथ बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहेच्छापञ्चेन्द्रियविषयभोगाकांक्षादेहमूर्च्छाव्रतादिसंकल्पविकल्परहितेन
निजशुद्धात्मध्यानेन योऽसौ निजशुद्धात्मानं जानाति स परिग्रहविषयदेहव्रताव्रतेषु रागद्वेषौ न
करोतीति चतुःकलं प्रकटयति —
१७६) गंथहँ उप्परि परम - मुणि देसु वि करइ ण राउ ।
गंथहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ।।४९।।
ग्रन्थस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् ।
ग्रन्थाद् येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ।।४९।।
गंथहं इत्यादि । गंथहँ उप्परि ग्रन्थस्य बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहस्योपरि अथवा ग्रन्थ
रचनारूपशास्त्रस्योपरि परम-मुणि परमतपस्वी देसु वि करइ ण द्वेषमपि न करोति न राउ
हवे, बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहनी इच्छा, पांच इन्द्रियोना विषयोने भोगववानी आकांक्षा,
देहनी मूर्च्छा अने व्रतादिना संकल्प-विकल्पथी रहित एवा निज शुद्धात्माना ध्यान वडे जे कोई
निज शुद्धात्माने जाणे छे ते परिग्रह, विषयो, देह अने व्रत-अव्रतमां राग-द्वेष करतो नथी, एम
चार सूत्रोथी प्रगट करे छेः —
भावार्थः — मिथ्यात्व, स्त्रीआदिने वेदवानी आकांक्षारूप त्रणवेद, हास्य, अरति, रति,
शोक, भय, जुगुप्सारूप छ नोकषाय अने क्रोध, मान, माया, लोभरूप चार कषाय ए चौद
आगे बाह्य अंतरंग परिग्रहकी इच्छासे पाँच इंद्रियोंके विषय – भोगोंकी वांछासे रहित हुआ
देहमें ममता नहीं करता, तथा मिथ्यात्व अव्रत आदि समस्त संकल्प-विकल्पोंसे रहित जो निज
शुद्धात्मा उसे जानता है, वह परिग्रहमें तथा विषय देहसंबंधी व्रत-अव्रतमें राग-द्वेष नहीं करता,
ऐसा चार — सूत्रोंसे प्रगट करते हैं —
गाथा – ४९
अन्वयार्थ : — [ग्रंथस्य उपरि ] अंतरङ्ग बाह्य परिग्रहके ऊ पर अथवा शास्त्रके ऊ पर
जो [परममुनिः ] परम तपस्वी [रागम् द्वेषमपि न करोति ] राग और द्वेष नहीं करता है [येन ]
जिस मुनिने [आत्मस्वभावः ] आत्माका स्वभाव [ग्रंथात् ] ग्रंथसे [भिन्नः विज्ञातः ] जुदा जान
लिया है ।
भावार्थ : — मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा,
क्रोध, मान, माया, लोभ — ये चौदह अंतरङ्ग परिग्रह और क्षेत्र, वास्तु (घर), हिरण्य,