Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 52 (Adhikar 2).

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दुक्खमेव तहा ।।’’ इति गाथाकथितलक्षणं द्रष्टश्रुतानुभूतं यद्देहजनितसुखं तज्जगत्रये कालत्रयेऽपि
मनवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबलेन पारमार्थिकानाकुलत्व-
लक्षणसुखपरिणते निजपरमात्मनि स्थित्वा च य एव देहाद्भिन्नं स्वशुद्धात्मानं जानाति स एव
देहस्योपरि रागद्वेषौ न करोति
अत्र य एव सर्वप्रकारेण देहममत्वं त्यक्त्वा देहसुखं नानुभवति
तस्यैवेदं व्याख्यानं शोभते नापरस्येति तात्पर्यार्थः ।।५१।।
अथ
१७९) वित्ति-णिवित्तिहिँ परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ
बंधहँ हेउ वियाणियउ एयहँ जेण सहाउ ।।५२।।
ए प्रमाणे आ गाथामां कहेला लक्षणवाळुं, देखेलुं, सांभळेलुं अने अनुभवेलुं जे देहजनित सुख
छे तेने त्रण लोकमां त्रण काळमां मन-वचन-कायथी कृत, कारित, अनुमोदनथी छोडीने अने
वीतरागनिर्विकल्प समाधिना बळथी अनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवा पारमार्थिक सुखरूपे परिणत
निज परमात्मामां स्थित थईने जे महामुनि देहथी भिन्न स्वशुद्धात्माने जाणे छे ते ज देहनी
उपर राग-द्वेष करतो नथी.
अहीं, सर्व प्रकारे देहनुं ममत्व छोडीने देहसुखने जे अनुभवतो नथी तेने आ व्याख्यान
शोभे छे पण बीजाने नहि. (पण जे देहबुद्धिवाळा छे तेमने आ व्याख्यान शोभतुं नथी), एवो
तात्पर्यार्थ छे. ५१.
वळी (हवे, प्रवृत्ति अने निवृत्तिमां पण महामुनि राग-द्वेष करतो नथी. एम कहे छे)ः
३०२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-५१
होता है, वह सुख दुःखरूप ही है, क्योंकि वह सुख परवस्तु है, निजवस्तु नहीं है, बाधा सहित
है, निराबाध नहीं है, नाशके लिए हुए है, जिसका नाश हो जाता है, बन्धका कारण है, और
विषम है
इसलिए इन्द्रियसुख दुःखरूप ही है, ऐसा इस गाथामें जिसका लक्षण कहा गया
है, ऐसे देहजनित सुखको मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदनासे छोड़े
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिके बलसे आकुलता रहित परमसुख निज परमात्मामें स्थित होकर जो
महामुनि देहसे भिन्न अपने शुद्धात्माको जानता है, वही देहके ऊ पर राग-द्वेष नहीं करता
जो
सब तरह देहसे निर्ममत्व होकर देहसे सुखको नहीं अनुभवता, उसीके लिए यह व्याख्यान शोभा
देता है, और देहबुद्धिवालोंको नहीं शोभता, ऐसा अभिप्राय जानना
।।५१।।
आगे प्रवृत्ति और निवृत्तिमें भी महामुनि राग-द्वेष नहीं करता, ऐसा कहते हैं