वृत्तिनिवृत्त्योः परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् ।
बन्धस्य हेतुः विज्ञातः एतयोः येन स्वभावः ।।५२।।
वित्तिणिवित्तिहिं इत्यादि । वित्ति-णिवित्तिहिं वृत्तिनिवृत्तिविषये व्रताव्रतविषये परम-मुणि
परममुनिः देसु वि करइ ण राउ द्वेषमपि न करोति न च रागम् । येन किं कृतम् । बंधहं
हेउ वियाणियउ बन्धस्य हेतुर्विज्ञातः । कोऽसौ । एयहं जेण सहाउ एतयोर्व्रताव्रतयोः स्वभावो
येन विज्ञात इति । अथवा पाठान्तरम् । ‘‘भिण्णउ जेण वियाणियउ एयहं अप्पसहाउ’’ भिन्नो
येन विज्ञानः । कोऽसौ । आत्मस्वभावः । काभ्याम् । एताभ्यां व्रताव्रतविकल्पाभ्यां सकाशादिति ।
तथाहि । येन व्रताव्रतविकल्पौ पुण्यपापबन्धकारणभूतौ विज्ञातौ स शुद्धात्मनि स्थितः सन्
व्रतविषये रागं न करोति तथा चाव्रतविषये द्वेषं न करोतीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । हे भगवन्
भावार्थः — व्रत-अव्रतना विकल्पो (अनुक्रमे) पुण्यबंध अने पापबंधना कारण छे, एम
जेणे जाण्युं छे ते शुद्ध आत्मामां स्थित थयो थको व्रतना विषयमां राग करतो नथी अने अव्रतना
विषयमां द्वेष करतो नथी.
एवुं कथन सांभळीने अहीं प्रभाकरभट्ट प्रश्न पूछे छे के हे भगवान! जो व्रत उपर
रागनुं तात्पर्य (राग करवानुं प्रयोजन) नथी (जो व्रत उपर पण राग करवा योग्य नथी) तो
व्रतनो निषेध थयो?
भगवान् योगीन्द्राचार्य कहे छे के व्रतनो अर्थ शो? (सर्व शुभ-अशुभ भावोथी)
अधिकार-२ः दोहा-५२ ]परमात्मप्रकाशः [ ३०३
गाथा – ५२
अन्वयार्थ : — [परममुनि ] महामुनि [वृत्तिनिवृत्त्योः ] प्रवृत्ति और निवृत्तिमें [रागम्
अपि द्वेषम् ] राग और द्वेषको [न करोति ] नहीं करता, [येन ] जिसने [एतयोः ] इन दोनोंका
[स्वभावः ] स्वभाव [बंधस्य हेतुः ] कर्मबंधका कारण [विज्ञातः ] जान लिया है ।
भावार्थ : — व्रत-अव्रतमें परममुनि राग-द्वेष नहीं करता जिसने इन दोनोंका स्वभाव
बंधका कारण जान लिया है । अथवा पाठांतर होनेसे ऐसा अर्थ होता है, कि जिसने आत्माका
स्वभाव भिन्न जान लिया है । अपना स्वभाव प्रवृत्ति-निवृत्तिसे रहित है । जहाँ व्रत-अव्रतका
विकल्प नहीं है । ये व्रत, अव्रत, पुण्य, पापरूप बंधके कारण हैं । ऐसा जिसने जान लिया,
वह आत्मामें तल्लीन हुआ व्रत-अव्रतमें राग-द्वेष नहीं करता । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने
पूछा, हे भगवन्, जो व्रत पर राग नहीं करे, तो व्रत क्यों धारण करे ? ऐसे कथनमें व्रतका निषेध
होता है । तब योगीन्द्राचार्य कहते हैं, कि व्रतका अर्थ यह है, कि सब शुभ-अशुभ भावोंसे निवृत्ति