Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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यदि व्रतस्योपरि रागतात्पर्यं नास्ति तर्हि व्रतं निषिद्धमिति भगवानाह व्रतं कोऽर्थः
सर्वनिवृत्तिपरिणामः तथा चोक्त म्‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्’’ अथवा
‘‘रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम् तौ च बाह्यार्थसंबन्धौ तस्मात्तांस्तु परित्यजेत् ।।’’
प्रसिद्धं पुनरहिंसादिव्रतं एकदेशेन व्यवहारेणेति कथमेकदेशव्रतमिति चेत् तथाहि जीवघाते
निवृत्तिर्जीवदयाविषये प्रवृत्तिः, असत्यवचनविषये निवृत्तिः सत्यवचनविषये प्रवृत्तिः, अदत्तादान-
विषये निवृत्तिः दत्तादानविषये प्रवृत्तिरित्यादिरूपेणैकदेशं व्रतम्
रागद्वेषरूपसंकल्प-
विकल्पकल्लोलमालारहिते त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधौ पुनः शुभाशुभत्यागात्परिपूर्णं व्रतं भवतीति
निवृत्तिना परिणाम थवा ते व्रत छे. कह्युं पण छे के ‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यः विरतिर्व्रतम् ’’
(तत्त्वार्थ सूत्र अ. ७ सू. १) (अर्थहिंसा, जूठ, चोरी, मैथुन अने परिग्रहथी निवृत्त
थवुं ते व्रत छे) अथवा ‘‘रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम् तौ च बाह्यार्थसंबन्धौ तस्मात्तांस्तु
परित्यजेत् ।।’’ आत्मानुशासन २३७) (अर्थराग-द्वेष बन्ने प्रवृत्ति छे अने ते बन्नेनो
अभाव ते निवृत्ति छे. वळी आ बन्ने बाह्य पदार्थना संबंधथी थाय छे तेथी राग अने
द्वेष ए बन्नेने छोडवा जोईए.)
वळी, एकदेशव्यवहारनयनी अपेक्षाए अहिंसादि व्रतो प्रसिद्ध छे. एकदेशव्रत केवी
रीते? आ प्रमाणे-जीवहिंसाथी निवृत्ति अने जीवदयामां प्रवृत्ति, असत्य वचनथी निवृत्ति
अने सत्य वचनमां प्रवृत्ति अदत्तादानथी निवृत्ति अने दत्तादानमां प्रवृत्ति, इत्यादि स्वरूपे
एकदेशव्रत छे. राग-द्वेषरूप संकल्प-विकल्पनी तरंगमाळाथी रहित त्रण गुप्तिथी गुप्त परम
३०४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-५२
परिणाम होना ऐसा ही अन्य ग्रंथोंमें भी ‘‘रागद्वेषौ’’ इत्यादिसे कहा है अर्थ यह है कि राग
और द्वेष दोनों प्रवृत्तियाँ हैं, तथा इनका निषेध वह निवृत्ति है ये दोनों अपने नहीं हैं, अन्य
पदार्थके संबंधसे हैं इसलिये इन दोनोंको छोड़े अथवा ‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो
विरतिर्व्रतं’’ ऐसा कहा गया है इसका अर्थ यह है, कि प्राणियोंको पीड़ा देना, झूठ वचन
बोलना, परधन हरना, कुशीलका सेवन और परिग्रह इनसे जो विरक्त होना, वही व्रत है ये
अहिंसादि व्रत प्रसिद्ध हैं, वे व्यवहारनयकर एकदेशरूप व्रत हैं यही दिखलाते हैंजीवघातमें
निवृत्ति, जीवदयामें प्रवृत्ति, असत्य वचनमें निवृत्ति, सत्य वचनमें प्रवृत्ति, अदत्तादान (चोरी)
से निवृत्ति, अचौर्यमें प्रवृत्ति इत्यादि स्वरूपसे एकदेशव्रत कहा जाता है, और राग-द्वेषरूप
संकल्प विकल्पोंकी कल्लोलोंसे रहित तीन गुप्तिसे गुप्त समाधिमें शुभाशुभके त्यागसे परिपूर्ण व्रत
होता है
अर्थात् अशुभकी निवृत्ति और शुभकी प्रवृत्तिरूप एकदेशव्रत और शुभ, अशुभ दोनोंका
ही त्याग होना वह पूर्ण व्रत है इसलिये प्रथम अवस्थामें व्रतका निषेध नहीं है एकदेश व्रत
है, और पूर्ण अवस्थामें सर्वदेश व्रत है यहाँ पर कोई यदि प्रश्न करे, कि व्रतसे क्या प्रयोजन ?