Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 305 of 565
PDF/HTML Page 319 of 579

 

background image
कश्चिदाह व्रतेन किं प्रयोजनमात्मभावनया मोक्षो भविष्यति भरतेश्वरेण किं व्रतं कृतम्,
घटिकाद्वयेन मोक्षं गतः इति अथ परिहारमाह भरतेश्वरोऽपि पूर्वं जिनदीक्षाप्रस्तावे लोचानन्तरं
हिंसादिनिवृत्तिरूपं महाव्रतविकल्पं कृत्वान्तर्मुहूर्ते गते सति द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदान-
बन्धादिविकल्परहिते मनोवचनकायनिरोधलक्षणे निजशुद्धात्मध्याने स्थित्वा पश्चान्निर्विकल्पो जातः
परं किंतु तस्य स्तोककालत्वान्महाव्रतप्रसिद्धिर्नास्ति अथेदं मतं वयमपि तथा कुर्मोऽवसानकाले
नैवं वक्त व्यम् यद्येकस्यान्धस्य कथंचिन्निधानलाभो जातस्तर्हि किं सर्वेषां भवतीति भावार्थः
तथा चोक्त म्‘‘पुव्वमभाविदजोगो मरणे आराहओ जदि वि कोई खन्नगनिधिदिट्ठंतं तं खु
समाधिमां तो शुभाशुभ बन्नेनो त्याग होवाथी परिपूर्ण व्रत छे. (आ रीते परिपूर्ण व्रतमां
शुभ परिणामनो पण त्याग होवाथी व्रत उपर पण राग करवा योग्य नथी.)
अहीं, कोई प्रश्न करे के व्रतथी शुं प्रयोजन छे? मात्र आत्मभावनाथी मोक्ष थई
जशे? भरतेश्वरे क्यां व्रत कर्यां हतां? छतां पण तेओ बे घडीमां मोक्षे चाल्या गया.
तेनो परिहार करे छे, भरतेश्वरे पण पहेलां जिनदीक्षा धारण करती वखते माथानुं
केशलोचन कर्या पछी हिंसादि पापोनी निवृत्तिरूप महाव्रतोना विकल्पने करीने अन्तर्मुहूर्त जतां,
देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी आकांक्षारूप निदानबंधादिना विकल्पोथी रहित,
मन-वचन-कायना निरोधरूप निजशुद्धात्मध्यानमां स्थित थईने पछी निर्विकल्प थया. पण तेमने
अल्पकाळना महाव्रत होवाथी तेमना महाव्रतनी प्रसिद्धि न थई. अहीं कोई अज्ञानी एम
कहे के अमे पण मरणकाळे तेवी रीते करीशुं, तो एम कहेवुं योग्य नथी कारण के जो कोई
एक आंधळाने कोई पण रीते खजानानी प्राप्ति थई गई तो शुं बधाने ते रीते थाय? एवो
भावार्थ छे. कह्युं पण छे के
‘‘पुव्वमभाविदजोगो मरणे आराहओ जदि वि कोई । खन्नगनिधिदिट्ठंतं
अधिकार-२ः दोहा-५२ ]परमात्मप्रकाशः [ ३०५
आत्मभावनासे ही मोक्ष होता है भरतजी महाराजने क्या व्रत धारण किया था ? वे तो दो घड़ीमें
ही केवलज्ञान पाकर मोक्ष गये इसका समाधान ऐसा है, कि भरतेश्वरने पहले जिनदीक्षा धारण
की, शिरके केशलुञ्चन किये, हिंसादि पापोंकी निवृत्तिरूप पाँच महाव्रत आदरे फि र एक
अंतर्मुहूर्तमें समस्त विकल्प रहित मन, वचन, काय रोकनेरूप निज शुद्धात्मध्यान उसमें ठहरकर
निर्विकल्प हुए
वे शुद्धात्माका ध्यान, देखे, सुने और भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप निदान बन्धादि
विकल्पोंसे रहित ऐसे ध्यानमें तल्लीन होकर केवली हुए जब राज छोड़ा, और मुनि हुए तभी
केवली हुए, तब भरतेश्वरने अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त किया इसलिये महाव्रतकी प्रसिद्धि नहीं
हुई इस पर कोई मूर्ख ऐसा विचार लेवे, कि जैसा उनको हुआ वैसे हमको भी होवेगा ऐसा
विचार ठीक नहीं है यदि किसी एक अंधेको किसी तरहसे निधिका लाभ हुआ, तो क्या सभीको
ऐसा हो सकता है ? सबको नहीं होता भरत सरीखे भरत ही हुए इसलिये अन्य भव्यजीवोंको
यही योग्य है, कि तप संयमका साधन करना ही श्रेष्ठ है ऐसा ही ‘‘पुव्वं’’ इत्यादि गाथासे