पमाणं ण सव्वत्थ ।।’’ ।।५२।।
एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गप्रतिपादकमहाधिकारमध्ये परमोपशमभावव्याख्यानोपल-
क्षणत्वेन चतुर्दशसूत्रैः १स्थलं समाप्तम् । अथानन्तरं निश्चयनयेन पुण्यपापे द्वे समाने
इत्याद्युपलक्षणत्वेन चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं व्याख्यानं क्रियते । तद्यथा — योऽसौ विभाव-
स्वभावपरिणामौ निश्चयनयेन बन्धमोक्षहेतुभूतौ न जानाति स एव पुण्यपापद्वयं करोति न चान्य
इति मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति —
तं खु पमाणं ण सव्वत्थ ।।’’ (भगवती आराधना २४) [अर्थः — जेवी रीते कोई पुरुष
मरणना अवसर पहेलां योगनो अभ्यास न कर्यो होवा छतां मरण वखते कदाच आराधक
थई जाय छे तो ते अंधपुरुषने कदाचित् निधिनी प्राप्ति थाय छे तेना जेवुं कहेवाय. पण
आवुं बधी जग्याए खरेखर थाय तेवुं प्रमाण नथी (पण आवुं बधी जग्याए अवश्य थाय
ज एम संभवतुं ज नथी.] ५२.
ए प्रमाणे मोक्ष, मोक्षफळ अने मोक्षमार्गना प्रतिपादक महाधिकारमां चौद गाथासूत्रो
वडे परम-उपशामभावना व्याख्यानरूप उपलक्षणवाळुं स्थळ समाप्त थयुं.
त्यार पछी चौद गाथासूत्रो सुधी निश्चयनयथी पुण्य अने पाप बन्ने समान छे, इत्यादि
उपलक्षणवाळुं व्याख्यान करवामां आवे छे ते आ प्रमाणेः —
३०६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-५२
दूसरी जगह भी कहा है । अर्थ ऐसा है, कि जिसने पहले तो योगका अभ्यास नहीं किया, और
मरणके समय भी जो कभी आराधक हो जावे, तो यह बात ऐसी जानना, कि जैसे किसी अंधे
पुरुषको निधिका लाभ हुआ हो । ऐसी बात सब जगह प्रमाण नहीं हो सकती । कभी कहीं पर
होवे तो होवे ।।५२।।
इस तरह मोक्ष, मोक्षका फल, और मोक्षके मार्गके कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें परम
उपशांतभावके व्याख्यानकी मुख्यतासे अंतरस्थलमें चौदह दोहे पूर्ण हुए ।
आगे निश्चयनयकर पुण्य-पाप दोनों ही समान हैं, ऐसा चौदह दोहोंमें कहते हैं । जो
कोई स्वभावपरिणामको मोक्षका कारण और विभावपरिणामको बंधका कारण निश्चयसे ऐसा
भेद नहीं जानता है, वही पुण्य-पापका कर्ता होता है, अन्य नहीं, ऐसा मनमें धारणकर यह
गाथा – सूत्र कहते हैं —
१ पाठान्तरः — स्थलं = पंचमं स्थलं