पुण्यपापरहितशुद्धात्मनः सकाशाद्विलक्षणे सुवर्णलोहनिगलवद्बन्धं प्रति समाने एव भवतः । एवं
नयविभागेन योऽसौ पुण्यपापद्वयं समानं न मन्यते स निर्मोहशुद्धात्मनो विपरीतेन मोहेन मोहितः
सन् संसारे परिभ्रमति इति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । तर्हि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा
तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह । यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं
त्रिगुप्तिगुप्तवीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिं लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव । यदि पुनस्तथाविधाम-
वस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां
षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् ।।५५।।
अथ येन पापफलेन जीवो दुःखं प्राप्य दुःखविनाशार्थं धर्माभिमुखो भवति तत्पापमपि
समीचीनमिति दर्शयति —
एवुं कथन सांभळीने प्रभाकरभट्ट पूछे छे के जो एम छे तो जे कोई (परमतवादी)
पुण्य-पाप बन्नेने सरखा मानीने वर्ते छे तेमने आप शा माटे दूषण आपो छो? भगवान
योगीन्द्रदेव कहे छे के जो शुद्धात्मानी अनुभूतिस्वरूप त्रण गुप्तिथी गुप्त एवी वीतराग
निर्विकल्प परम समाधिने पामीने स्थित थाय छे त्यारे तो संमत ज छे (त्यारे तो पुण्य
-पापने समान मानवा ते तो यथार्थ ज छे) पण जो तेवी अवस्थाने प्राप्त कर्या सिवाय
जे गृहस्थअवस्थामां दान-पूजादिक छोडे छे अने मुनिनी अवस्थामां छ आवश्यक आदिने
छोडीने उभयभ्रष्ट (बन्ने बाजुथी भ्रष्ट) थतो वर्ते छे त्यारे तो दूषण ज छे, (त्यारे तो
पुण्य-पाप बन्नेने समान मानवां ते तो दूषण ज छे) एवुं तात्पर्य छे. ५५.
हवे, जे पापना फळथी जीव दुःख पामीने दुःखने दूर करवा माटे धर्मनी सन्मुख थाय
छे ते पाप पण समीचीन (सारुं) छे, एम दर्शावे छेः —
अधिकार-२ः दोहा-५५ ]परमात्मप्रकाशः [ ३११
प्रभाकरभट्ट बोले, यदि ऐसा ही है, तो कितने ही परमतवादी पुण्य-पापको समान मानकर
स्वच्छंद हुए रहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ? तब योगीन्द्रदेवने कहा — जब
शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप तीन गुप्तिसे गुप्त वीतरागनिर्विकल्पसमाधिको पाकर ध्यानमें मग्न हुए पुण्य
-पापको समान जानते हैं, तब तो जानना योग्य है । परन्तु जो मूढ़ परमसमाधिको न पाकर
भी गृहस्थ - अवस्थामें दान, पूजा आदि शुभ क्रियाओंको छोड़ देते हैं, और मुनि पदमें छह
आवश्यककर्मोंको छोड़ते हैं, वे दोनों बातोंसे भ्रष्ट हैं । न तो यती हैं, न श्रावक हैं । वे निंदा
योग्य ही हैं । तब उनको दोष ही है, ऐसा जानना ।।५५।।
आगे जिस पापके फलसे यह जीव नरकादिमें दुःख पाकर उस दुःखके दूर करनेके
लिये धर्मके सम्मुख होता है, वह पापका फल भी श्रेष्ठ (प्रशंसा योग्य) है, ऐसा दिखलाते
हैं —