Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 55 (Adhikar 2).

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१८२) जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ
सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ ।।५५।।
यः नैव मन्यते जीवः समाने पुण्यमपि पापमपि द्वे
स चिरं दुःखं सहमानः जीव मोहेन हिण्डते लोके ।।५५।।
जो इत्यादि जो णवि मण्णइ यः कर्ता नैव मन्यते जीउ जीवः किं न मन्यते
समु समाने के पुण्णु वि पाउ वि दोइ पुण्यमपि पापमपि द्वे सो स जीवः चिरु दुक्खु
सहंतु चिरं बहुतरं कालं दुःखं सहमानः सन् जिय हे जीव मोहिं हिंडइ लोइ मोहेन मोहितः
सन् हिण्डते भ्रमति
क्व लोके संसारे इति तथा च यद्यप्यसद्भूतव्यवहारेण द्रव्यपुण्यपापे
परस्परभिन्ने भवतस्तथैवाशुद्धनिश्चयेन भावपुण्यपापे भिन्ने भवतस्तथापि शुद्धनिश्चयनयेन
भावार्थजो, के असद्भूत व्यवहारनयथी द्रव्यपुण्य अने द्रव्यपाप परस्पर भिन्न
छे तेम ज अशुद्धनिश्चयनयथी भावपुण्य अने भावपाप भिन्न छे तोपण शुद्धनिश्चयनयथी
पुण्यपापरहित शुद्ध आत्माथी विलक्षण तेओ, जेम सोनानी अने लोढानी बेडी बंधननी अपेक्षाए
समान छे तेम, बंधनी अपेक्षाए समान ज छे
ए प्रमाणे नयविभागथी जे पुण्य-पाप बन्नेने
समान मानतो नथी ते निर्मोह शुद्धात्माथी विपरीत मोहथी मोहित थतो संसारमां परिभ्रमण
करे छे.
३१० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-५५
गाथा५५
अन्वयार्थ :[यः ] जो [जीवः ] जीव [पुण्यमपि पापमपि द्वे ] पुण्य और पाप
दोनोंको [समाने ] समान [नैव मन्यते ] नहीं मानता, [सः ] वह जीव [मोहेन ] मोहसे मोहित
हुआ [चिरं ] बहुत काल तक [दुःखं सहमानः ] दुःख सहता हुआ [लोके ] संसारमें [हिंडते ]
भटकता है
भावार्थ :यद्यपि असद्भूत (असत्य) व्यवहारनयसे द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप ये
दोनों एक दूसरेसे भिन्न हैं, और अशुद्धनिश्चयनयसे भावपुण्य और भावपाप ये दोनों भी आपसमें
भिन्न हैं, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर पुण्य-पाप रहित शुद्धात्मासे दोनों ही भिन्न हुए बंधरूप
होनेसे दोनों समान ही हैं
जैसे सोनेकी बेड़ी और लोहेकी बेड़ी ये दोनों ही बंधका कारण
हैंइससे समान हैं इस तरह नयविभागसे जो पुण्य-पापको समान नहीं मानता, वह निर्मोही
शुद्धात्मासे विपरीत जो मोहकर्म उससे मोहित हुआ संसारमें भ्रमण करता है ऐसा कथन सुनकर