Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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मोक्षस्य कारणं भणित्वा मत्वा जिय हे जीव सो पर ताइं करेइ स एव पुरुषस्ते पुण्यपापे
द्वे करोतीति
तथाहिनिजशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागसहजानन्दैकरूपं सुखरसास्वादरुचिरूपं
सम्यग्दर्शनं, तत्रैव स्वशुद्धात्मनि वीतरागसहजानन्दैकस्वसंवेदनपरिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, वीतराग-
सहजानन्दैकसमरसी भावेन तत्रैव निश्चलस्थिरत्वं सम्यक्चारित्रं, इत्येतैस्त्रिभिः परिणतमात्मानं
योऽसौ मोक्षकारणं न जानाति स एव पुण्यमुपादेयं करोति पापं हेयं च करोतीति
यस्तु
पूर्वोक्त रत्नत्रयपरिणतमात्मानमेव मोक्षमार्गं जानाति तस्य तु सम्यग्द्रष्टेर्यद्यपि संसारस्थिति-
च्छेदकारणेन सम्यक्त्वादिगुणेन परंपरया मुक्ति कारणं तीर्थंकरनामकर्मप्रकृत्यादिकमनीहितवृत्त्या
विशिष्टपुण्यमास्रवति तथाप्यसौ तदुपादेयं न करोतीति भावार्थः
।।५४।।
अथ योऽसौ निश्चयेन पुण्यपापद्वयं समानं न मन्यते स मोहेन मोहितः सन् संसारं
परिभ्रमतीति कथयति
मय स्वसंवेदनरूप-परिच्छित्तिरूप-सम्यग्ज्ञान छे, एक (केवळ) वीतराग सहजानंदरूप परमसमरसी
भावथी तेमां ज, (स्वशुद्धात्मामां ज) निश्चलस्थिरतारूप सम्यक्चारित्र छे. ए त्रण रूपे परिणत
आत्माने जे मोक्षनुं कारण जाणतो नथी ते ज पुण्यने उपादेय करे छे अने पापने हेय करे छे.
परंतु पूर्वोक्त रत्नत्रयरूपे परिणत आत्माने ज जे मोक्षमार्ग जाणे छे ते सम्यग्द्रष्टिने
तो जोके संसारस्थितिनो नाश करवामां कारणभूत एवा सम्यक्त्व आदि गुणथी परंपराए
मुक्तिना कारणरूप तीर्थंकरनामकर्मनी प्रकृति आदिक विशिष्ट पुण्यनो अनीहितवृत्तिथी आस्रव थाय
छे तोपण ते सम्यग्द्रष्टि तेने उपादेय करतो नथी. एवो भावार्थ छे. ५४.
हवे, जे कोई निश्चयनयथी पुण्य, पाप बन्नेने समान मानतो नथी ते मोहथी मोहित
थतो संसारमां भटके छे, एम कहे छेः
अधिकार-२ः दोहा-५४ ]परमात्मप्रकाशः [ ३०९
स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान और वीतरागपरमानंद परम समरसीभावकर उसीमें निश्चय स्थिरतारूप
सम्यक्चारित्र
इन तीनों स्वरूप परिणत हुआ जो आत्मा उसको जो जीव मोक्षका कारण नहीं
जानता, वह ही पुण्यको आदरने योग्य जानता है, और पापको त्यागने योग्य जानता है तथा
जो सम्यग्दृष्टि जीव रत्नत्रयस्वरूप परिणत हुए आत्माको ही मोक्षका मार्ग जानता है, उसके
यद्यपि संसारकी स्थितिके छेदनका कारण, और सम्यक्त्वादि गुणसे परम्पराय मुक्तिका कारण
ऐसी तीर्थंकरनामप्रकृति आदि शुभ (पुण्य) प्रकृतियोंको (कर्मोंको) अवाँछितवृत्तिसे ग्रहण
करता है, तो भी उपादेय नहीं मानता है
कर्मप्रकृतियोंको त्यागने योग्य ही समझता है ।।५४।।
आगे जो निश्चयनयसे पुण्य-पाप दोनोंको समान नहीं मानता, वह मोहसे मोहित हुआ
संसारमें भटकता है, ऐसा कहते हैं